माननीय राज्यपाल पंजाब और प्रशासक, यूटी चंडीगढ़ श्री बनवारीलाल पुरोहित द्वारा 24 दिसंबर, 2021 को चंडीगढ़ में 146वें हरिवल्लभ संगीत सम्मेलन के अवसर पर भाषण

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  • 2021-12-24 18:50

मुझे आज यहां इस 146वें हरिवल्लभ संगीत सम्मेलन में उपस्थित होकर अत्यंत प्रसन्नता हो रही है।

मुझे यह जानकर विशेष रूप से खुशी हो रही है कि पिछले कई वर्षों से यह संगीत सम्मेलन हिंदुस्तानी संगीत को लोकप्रिय बनाने और इसका प्रसार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

विश्व के सांस्कृतिक मानचित्र पर भारत का एक महत्वपूर्ण स्थान है। हमें अपनी समृद्ध और विविध संस्कृति पर गर्व है। हम दुनिया की सबसे पुरानी और परम्परागत सभ्यताओं में से एक हैं। यह हमारी समय के साथ चलने की ताकत और अपने मूल चरित्र और मूल्यों को खोए बिना नए विचारों का सामना करने की हमारी क्षमता के कारण संभव हो पाया है। नतीजतन, आज हमें कला, साहित्य, स्मारकों, रीति-रिवाजों और परंपराओं की एक मूल्यवान श्रृंखला विरासत में मिली है जो हमारे जीवन को समृद्ध बनाती है।

हम में से प्रत्येक भारतीय को अपने पूर्वजों द्वारा हमें प्रदान की गई सांस्कृतिक विरासत का पूरा सम्मान करना चाहिए और अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए इसके संरक्षण में अपना योगदान देना चाहिए। संविधान के तहत, भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह हमारी संयुक्त संस्कृति की समृद्ध विरासत के महत्व को समझें और संरक्षित करें।

साथियों, संगीत ब्रह्मांड को आत्मा, मन को पंख, कल्पना को उड़ान और हर जीव आत्मा को आनन्द प्रदान करता है।

शास्त्रीय संगीत का इतिहास वैदिक काल से भी पुराना है। सामवेद को भारतीय शास्त्रीय संगीत की नींव माना जाता है। इसमें संगीत की धुनों पर तैयार किए गए भजन होते हैं जिन्हें आम तौर पर ‘हवन’ और ‘यज्ञों’ के दौरान संगीत के तीन से सात सुरों का उपयोग करके गाया जाता है।

भारतीय शास्त्रीय संगीत का उल्लेख कई प्राचीन ग्रंथों में भी पाया जाता है, जिनमें रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य शामिल हैं।

दोस्तो, मुग़ल काल से भारतीय संगीत ने अपनी बुलन्दियों की ऊँचाइयों को छुआ। मुग़ल काल में संगीत को अनेक कवियों और गायकों ने अपने सुरों और मधुर आवाज़ से सजाया-संवारा। तानसेन, जोकि अकबर के नवरत्नों में से एक थे, उन्होंने भैरव, मल्हार, रागेश्वरी, दरबारी रोडी, दरबारी कानाडा, सारंग, जैसे कई रागों का निर्माण किया था। उन्होंने भारत में शास्त्रीय संगीत के विकास में अपना अपूर्व योगदान दिया है। उनके गहरे मित्र कवि सूरदास ने उनके बारे में लिखा है - भलो भयो विधि ना दिए शेषनाग के कान/धरा मेरू सब डोलते तानसेन की तान!

उनके आश्चर्यजनिक संगीत कौशल के बारे में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। कहा जाता है कि उनके संगीत से पशु-पक्षी एकत्रित हो जाते थे, जब वे गाते थे तो पत्थर पिघल जाता था और हिंसक जंगली जानवर भी शांत हो जाते थे, जब वह मल्हार गाते थे, तो बारिश हो जाती थी, दीपक राग गाने पर दीये जल उठते थे। इन किंवदंतियों के ऐतिहासिक प्रमाण भले ही न हों, किन्तु उनमें इस सत्यता का अंश ज़रूर है कि अगर तानसेन जैसा महान् गायक हो तो संगीत में असीम संभावनाएँ निहित हैं।

साथियों, हमारे देश की मिट्टी का संगीत, यहां उपजा संगीत न केवल हमें खुशी देता है, बल्कि यह हमारे दिल और दिमाग को भी छू जाता है और हमें सुकून प्रदान करता है। भारतीय संगीत की विषेषता यह है कि यह किसी भी व्यक्ति की सोचने की शक्ति, उसके दिमाग और उसकी मानसिकता को सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।

जब हम किसी भी शैली का कोई शास्त्रीय संगीत सुनते हैं, फिर चाहे यह हमारी समझ में आता हो या न आता हो, लेकिन अगर हम इसे ध्यान से सुनें, तो हमें परम शांति का अनुभव होता है।

संगीत हमारे दैनिक जीवन का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है। विश्व के लिए संगीत एक कला है; कई लोगों के लिए यह आजीविका का स्रोत है, लेकिन भारत में संगीत प्रयत्न की धुन है और जीवन जीने की एक कला है।

‘षानदार, मनोहर व आलौकिक’ भारतीय संगीत के ये तीन गुण हैं। हिमालय की ऊंचाई, गंगा मां की गहराई, अजंता-एलोरा की सुंदरता, ब्रह्मपुत्र की विशालता, समुद्र की लहरों का स्वरूप और भारतीय समाज का आंतरिक आध्यात्मिक जीवन - संगीत इन सभी का एक सुमेल है। इसलिए लोग अपना पूरा जीवन संगीत की शक्ति को समझने और समझाने में लगा देते हैं।

भारतीय संगीत चाहे वह लोक संगीत हो, शास्त्रीय संगीत हो या फिल्म संगीत हो, उसने हमेशा देष और समाज को जोड़ने का ही काम किया है। संगीत हम सभी को धर्म और जाति से संबंधित सामाजिक बाधाओं से ऊपर उठकर एकजुट रहने का संदेश देता है। उत्तर भारत का हिंदुस्तानी संगीत, दक्षिण का कर्नाटिक संगीत और बंगाल का रबींद्र संगीत, असम का ज्योति संगीत और जम्मू-कश्मीर का सूफी संगीत, ये सभी हमारी सभ्यता का आधार हैं।

आप में से अधिकांश लोग हमारी संस्कृति की इन बारीकियों और इसके विस्तार को समझते हैं। लेकिन आज की युवा पीढ़ी शायद इससे वाकिफ नहीं है। इस उदासीनता के कारण ही कई वाद्य यंत्र और शैलियाँ विलुप्त होने की कगार पर हैं। बहुत से बच्चे अलग-अलग तरह के गिटार के बारे में तो जानते होंगे लेकिन उन्हें शायद ही सरोद और सारंगी के बीच का अंतर पता हो। यह उचित नहीं है और ऐसा नहीं होना चाहिए।

हमारे देश की धरोहर भारतीय संगीत हम सभी के लिए एक वरदान है। इस विरासत में अपार शक्ति और ऊर्जा विद्यमान है। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि ‘‘राष्ट्रयम जागृयाम व्यं’’˸ ‘सार्वकालिक सतर्कता स्वतंत्रता की कीमत है’। हमें हर पल सतर्क रहना चाहिए। हमें अपनी विरासत के लिए हर पल काम करते रहना चाहिए।

हमें अपनी विरासत के प्रति लापरवाह नहीं होना चाहिए। हमारी संस्कृति, कला, संगीत, साहित्य, हमारी विभिन्न भाषाएं और हमारी प्रकृति, ये सभी हमारी बहुमूल्य विरासत का हिस्सा हैं। कोई भी देश अपनी विरासत और संस्कृति को भूलकर आगे नहीं बढ़ पाया है। इस धरोहर की रक्षा करना और इसे और मजबूत करना हम सबका कर्तव्य है।

भारत में कला और संस्कृति की एक समृद्ध और अनूठी विरासत है जिसमें शास्त्रीय संगीत, पारंपरिक और आदिवासी संगीत, आधुनिक मिश्रण संगीत और वाद्य संगीत शामिल हैं। संगीत, ललित कला, राग और रस हमारे सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न अंग रहे हैं। इन सभी तत्वों ने हमारे आध्यात्मिक कायाकल्प में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

भारत भले ही एक युवा राष्ट्र हो, लेकिन इसकी सभ्यता हज़ारों साल पुरानी है। सदियों से अब तक अपार सांस्कृतिक संपदा का संचय हुआ है।

भारत 1.3 अरब लोगों, 122 भाषाओं, 1600 बोलियों और 7 धर्मों का एक बहुआयामी राष्ट्र है, लेकिन फिर भी यह व्यवस्थित रूप से मज़बूती के साथ टिका हुआ है, जो हमारे देश की खूबसूरती को दर्षाता है। इसलिए मैं एक बार फिर से दोहराता हूं कि आने वाली पीढ़ियों के लिए हमारी कला के विभिन्न रूपों और शास्त्रीय संगीत का निरंतर हस्तांतरण बहुत जरूरी है।

हरिवल्लभ संगीत सम्मेलन वर्षों से संगीत के दिग्गजों, संगीत प्रेमियों और उभरते हुए कलाकारों को एक साथ एक मंच पर ला रहा है।

मुझे पता चला है कि सन् 1875 में बाबा तुजागिरी जी की प्रथम पुण्यतिथि पर बाबा हरिवल्लभ ने संगीत सम्मेलन का आयोजन किया था। तब से वार्षिक हरिवल्लभ संगीत सम्मेलन आयोजित करने की यह परंपरा निरंतर जारी है।

पिछले 145 वर्षों में, भारतीय शास्त्रीय संगीत के लगभग सभी उस्तादों ने इस संगीत सम्मेलन में शामिल होकर अपना प्रदर्शन किया है।

इस संगीत मेले की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई है। इसमें देश और विदेष के कलाकारों के साथ-साथ देष और विदेष के दर्शक भी शामिल होते हैं। जहां तक मुझे ज्ञात है, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी भी 1919 में हुए इस सम्मेलन में उपस्थित लोगों में से एक थे। निस्संदेह, लगभग डेढ़ शताब्दी की लंबी यात्रा में यह त्योहार राष्ट्रीय सांस्कृतिक कैलेंडर का एक अभिन्न अंग बन गया है। लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स ने भी श्री बाबा हरिवल्लभ संगीत सम्मेलन को भारत के सबसे पुराने संगीत समारोह के रूप में मान्यता दी है।

मुझे बताया गया है कि युवा पीढ़ी के बीच शास्त्रीय संगीत को बढ़ावा देने और सर्वश्रेष्ठ प्रदर्षनकर्ता को पुरस्कृत करने के लिए, हरिवल्लभ संगीत प्रतियोगिता नियमित रूप से आयोजित की जा रही है। परन्तु कोविड-19 महामारी के प्रकोप के समय के दौरान इसका आयोजन नहीं किया जा सका।

बाबा हरिवल्लभ जी को विनम्र श्रद्धांजलि के रूप में, हरिवल्लभ भवन का निर्माण करवा कर इस वर्ष के संगीत सम्मेलन का आयोजन किया गया है।

इसलिए, मैं आप सभी को हिंदुस्तानी संगीत के संरक्षण, प्रचार और विस्तार के लिए बधाई देता हूं।

मेरे प्यारे संगीतकारों, आज मैं आपसे यह नहीं पूछूंगा कि मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं क्योंकि मुझे एक किस्सा याद आ रहा है जिसे मैंने काफी समय पहले पढ़ा था। एक बार पूर्व राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने एक संगीतकार से पूछा था कि उन्हें सरकार से किस तरह की मदद चाहिए। इस पर संगीतकार ने एक विशेष राग का नाम लेते हुए कहा था कि कई कलाकार इसे ठीक से नहीं गाते हैं और इसे बिगाड़ देते हैं; क्या सरकार इसे रोक सकती है? यह उत्तर सुनकर डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने मुस्कुराते हुए अपना सिर झुका लिया था।

मित्रों, मैं समझता हूं कि सच्चे कलाकारों में त्याग की अनन्त भावना होती है और वे सभी सांसारिक प्रलोभनों से ऊपर होते हैं।

इस अवसर पर, मैं अपने देष के महान कलाकारों, संगीतकारों, शास्त्रीय गायकों, शहनाई वदकों और बांसुरी वादकों को राष्ट्रीय सांस्कृतिक विरासत में उनके योगदान के लिए आभार प्रकट करता हूं। और मैं उस्ताद गुलाम मुस्तफा खान, पंडित राजन मिश्रा, पंजाब की लोकप्रिय गायिका श्रीमती गुरमीत बावा जिन्हें हमने कुछ हफ्ते पहले खो दिया, को श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।

मैं उन सभी संगीतकारों और गायकों को भी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं, जिन्होंने कोविड-19 के कारण दम तोड़ दिया। मुझे ज्ञात हुआ है की 146वाँ श्री हरिवल्लभ संगीत सम्मेलन प्रख्यात सितारवादक पंडित देबू चौधरी, उनके बेटे सितारवादक पंडित प्रतीक चौधरी, पद्मभूषण पंडित राजन मिश्रा और हरिवल्लभ संगीत कमेटी के सदस्य आर्टिस्ट अमित को समर्पित होगा। इन सभी कलाकारों की मृत्यु कोरोना से हुई थी। परमात्मा इनकी आत्मा को शांति दे।

दोस्तो,

मैं आपको डॉ. रुक्मणी देवी अरुंडेल के बारे में बताना चाहता हूं, उन्होंने कहा था, ‘‘जब आप किसी संगीत की ध्वनि सुनते हैं या एक सुंदर चित्र में रंगों को देखते हैं, तो आप केवल संगीत ही नहीं सुनते या केवल चित्र ही नहीं देखते; आप कलाकारों की आत्मा को देखते हैं और यही नहीं आप कला की आत्मा को भी देखते हैं’’।

यही असली कला और कलाकारों की खूबसूरती है। इसी खूबसूरती से मन व आत्मा को तृप्त करने का सुअवसर हरिवल्लभ संगीत सम्मेलन ने हमें दिया है।

आइए, इसका हम एक साथ आनंद लें और अपनी संस्कृति और परंपरा के झंडे को ऊंचा रखें ताकि आने वाली पीढ़ियां अपनी विरासत पर गर्व महसूस कर सकें जैसा कि हम सभी इस समय कर रहे हैं।



धन्यवाद,

जय हिन्द।