SPEECH OF HON’BLE GOVERNOR PUNJAB AND ADMINISTRATOR, UT CHANDIGARH, SHRI GULAB CHAND KATARIA ON THE OCCASION OF KSHAMA YACHANA DIVAS (FORGIVENESS DAY) AT PUNJAB RAJ BHAVAN, CHANDIGARH ON SEPTEMBER 24, 2024.
- by Admin
- 2024-09-24 16:35
समारोह दिनांकः 24 सितंबर 2024
जैन समाज के ‘‘क्षमापना दिवस’’ के अवसर पर
माननीय राज्यपाल श्री गुलाब चंद कटारिया जी का भाषण
सप्रेम नमस्कार, सादर अभिवादन!
आज हम यहाँ एक बहुत ही विशेष और महत्वपूर्ण अवसर पर एकत्रित हुए हैं - क्षमापना दिवस। यह दिन न केवल हमें अपनी गलतियों को स्वीकार करने का अवसर देता है, बल्कि हमें दूसरों के प्रति उदारता, दया और क्षमा का महत्व भी सिखाता है। क्षमा केवल एक क्रिया नहीं, यह एक महान गुण है, जो हमारी आत्मा को शुद्ध करता है और हमें मानसिक शांति प्रदान करता है।
जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ और 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने क्षमा को अत्यधिक महत्व दिया था। महावीर स्वामी की शिक्षाओं में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन प्रमुख है, जिनमें क्षमा का अत्यधिक महत्व है। उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों में क्षमा याचना आत्मा को शुद्ध करने और अहिंसा का पालन करने का एक महत्वपूर्ण साधन है।
यह पर्व मुख्य रूप से पर्युषण पर्व के अंत में मनाया जाता है। पर्युषण जैन धर्म के सबसे पवित्र पर्वों में से एक है, जो आठ या दस दिनों तक चलता है। इन दिनों के दौरान, जैन अनुयायी उपवास, तपस्या और आत्म-चिंतन में संलग्न रहते हैं। पर्युषण के आखिरी दिन को क्षमावाणी दिवस के रूप में मनाया जाता है, जब जैन अनुयायी अपने सभी परिचितों, मित्रों और परिवारजनों से क्षमा मांगते हैं और दूसरों को क्षमा करते हैं।
जैन धर्म के इस पावन पर्व का उद्देश्य आत्म-शुद्धि, परस्पर क्षमा, और जीवन में अहिंसा के सिद्धांत को दृढ़ता से अपनाना है। इस दिन हम एक-दूसरे से माफी माँगते हैं, अपने कृत्यों की समीक्षा करते हैं, और अपने अंदर की नकारात्मकता को त्यागकर प्रेम और सद्भाव के साथ जीवन जीने का संकल्प लेते हैं।
जैन धर्म में क्षमा का बहुत महत्व है। महावीर स्वामी ने कहा था, ‘‘क्षमा वीरस्य भूषणम्’’, अर्थात क्षमा वीरों का आभूषण है। इसका तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति क्षमा कर सकता है, वही सच्चे अर्थों में वीर होता है। क्षमा करने के लिए दिल में दया, करुणा और आत्मसंयम की आवश्यकता होती है। यह केवल दूसरों को माफ करने का कार्य नहीं, बल्कि अपने भीतर के अहंकार और क्रोध को त्यागने का अवसर है।
क्षमापना दिवस का मुख्य संदेश है कि हमें अपने जीवन में दूसरों की गलतियों को माफ करना चाहिए और उनसे हमारे द्वारा जाने-अनजाने में हुई किसी भी गलती के लिए क्षमा माँगनी चाहिए। यह प्रक्रिया न केवल हमारे रिश्तों को सुधारती है, बल्कि हमारी आत्मा को भी शुद्ध करती है।
इस दिन जैन अनुयायी एक-दूसरे से कहते हैं:
‘‘मिच्छामि दुक्कड़म्’’
इसका अर्थ है, ‘‘मैंने यदि जानबूझकर या अनजाने में किसी को कष्ट पहुँचाया हो, तो मैं उससे क्षमा माँगता हूँ।’’
क्षमा का मार्ग अतुलनीय होता है एवं सबसे बड़ा बल क्षमा है। यदि इसका सही ढंग से, सही जगह पर प्रयोग किया जाए तो निश्चित ही यह सर्वशक्तिमान है। अगर क्रोध ही सर्वशक्तिमान होता और क्षमा निर्बल होती तो पृथ्वी पर इतने युद्ध होने के बाद भी सारी समस्याएं हल हो जानी चाहिए थीं, पर नहीं हुईं।
यह पर्व हमें सहनशीलता से रहने की प्रेरणा देता है। क्रोध को पैदा न होने देना और अगर हो भी जाए तो अपने विवेक से, नम्रता से उसे विफल कर देना अपने भीतर आने वाले क्रोध के कारण को ढूंढकर ,उससे उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों के बारे में सोचना।
क्षमा का मतलब सिर्फ बड़ों से ही क्षमा मांगना कतई नहीं है, अपनी गलती होने पर बड़े हों या छोटे सभी से क्षमा मांगना ही इस पर्व का उद्देश्य है। यह पर्व हमें यह शिक्षा देता है क़ि आपकी भावना अच्छी है तो दैनिक व्यवहार में होने वाली छोटी-मोटी त्रुटियों को अनदेखा करें और उनसे सीख लेकर फिर कोई नई गलती न करने की प्रेरणा देता है।
क्षमा करने से आप दोहरा लाभ लेते हैं- एक तो सामने वाले को आत्मग्लानि भाव से मुक्त करते हैं, व दिलों की दूरियों को दूर कर सहज वातावरण का निर्माण करके उसके दिल में फिर से अपने लिए एक अच्छी जगह बना लेते हैं। सदैव याद रखिए क़ि क्षमा मांगने वाले से ऊंचा स्थान क्षमा देने वाले का होता है।
क्षमापना से चित्त में आह्लाद का भाव पैदा होता है और आह्लाद भावयुक्त व्यक्ति मैत्रीभाव उत्पन्न कर लेता है और मैत्रीभाव प्राप्त होने पर व्यक्ति भाव विशुद्धि से... कर निर्भय हो जाता है।
मित्रों,
यह पर्व केवल व्यक्तिगत विकास तक सीमित नहीं है। यह हमें सामाजिक समरसता, शांति, और अहिंसा की भी शिक्षा देता है। आज के समय में, जब समाज में हिंसा, द्वेष, और नफरत का माहौल बढ़ता जा रहा है, संवत्सरी का यह संदेश और भी प्रासंगिक हो जाता है। हमें चाहिए कि हम दूसरों को माफ करने और दूसरों से माफी मांगने की भावना को अपने दैनिक जीवन में उतारें।
मानव-कल्याण के लिए प्रवर्तित जैन परम्परा के मूल में ‘अहिंसा परमोधर्मः’ का सिद्धान्त प्रतिष्ठित है। ‘अहिंसा’ का अर्थ केवल इतना नहीं है कि किसी को मारा न जाए। अहिंसा का अर्थ है- मन, वचन या शरीर से- किसी भी रूप में किसी भी जीवधारी को पीड़ा न पहुँचाना यानि कि हमारे विचार, वाणी और व्यवहार में भी किसी प्रकार की हिंसा के लिए स्थान न हो, बल्कि प्राणीमात्र के प्रति प्रेम, दया, करुणा, सौहार्द और सम्मान का भाव हो।
जैन परम्परा के तीन रत्न हैं- सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक आचरण। सम्यक दर्शन अर्थात धर्म को जानना, सम्यक ज्ञान अर्थात धर्म को मानना और सम्यक चरित्र अर्थात जाने माने हुए धर्म मार्ग की ओर बढ़ना। इन तीनों के समावेश के बाद व्यक्ति के लिए निश्चित ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। मानव के प्रति करुणावान और संवेदनशील होना ही धर्म है। दुनिया भर में धर्म के नाम पर हो रही हिंसा को दूर करने में ये शिक्षाएं आज, पहले से भी अधिक प्रासंगिक हैं।
भारत अनादि काल से शान्ति और अहिंसा का अनुगामी और प्रणेता रहा है। यहां सभी धर्मों में अहिंसा को सर्वोच्च स्थान दिया गया है और शान्ति की स्थापना के लिए मैत्री, सतुंलन और सहिष्णुता का मार्ग सुझाया गया है।
हमें यह सिखाया गया है कि पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों के साथ भी हिंसा नहीं करनी है। और यह भी बताया गया है कि नदियों, तालाबों एवं अन्य जल-स्त्रोतों को गंदा नहीं करना है। भारत में हिंसा के स्थान पर अहिंसा को मानव व्यवहार के केन्द्र में रखा गया है।
भगवान महावीर ने अन्य महत्वपूर्ण सिद्धांतों के साथ-साथ ‘अपरिग्रह’ को विशेष महत्व दिया था। ‘अपरिग्रह’ का अर्थ है-जीवन निर्वाह के लिए अति आवश्यक वस्तुओं के अलावा और कुछ ग्रहण न करना।
मानव-जाति अपनी निरन्तर बढ़ती जरूरतों के लिए दुनिया प्रकृति का अंधाधुंध दोहन कर रही है। संचय की प्रवृत्ति और संसाधनों का निर्मम उपभोग बढ़ता जा रहा है। जिसके कारण प्राकृतिक संसाधनों का अतिशय दोहन हो रहा है, प्रदूषण बढ़ रहा है और जलवायु परिवर्तन जैसी अनिष्टकारी स्थितियां पैदा हो रही हैं।
इनसे बचने के लिए केवल मनुष्यों और प्राणियों के साथ ही नहीं बल्कि प्रकृति के साथ भी सम्यक व्यवहार करना होगा, ये सीख भी हमें जैन परम्परा से मिलती है।
महात्मा गांधी भी अहिंसा एवं शान्ति के प्रबल अनुयायी और समर्थक थे। वे मानते थे कि इस पृथ्वी पर लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तो संसाधन उपलब्ध हैं, उनके लालच की पूर्ति के लिए नहीं। इस प्रकार से वे भी ‘अपरिग्रह’ में विश्वास करते थे।
जैन परम्परा सहित भारत की सनातन परम्परा में भी ‘अहिंसा’ केन्द्रीय भाव के रूप में प्रतिष्ठित है। गांधी जी ने अपने राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों के साधन के रूप में इसे अपनाया, और नई परिस्थितियों में ‘अहिंसा’ को नए आयाम प्रदान किए।
हमारी संस्कृति अग्रणी संस्कृति है और विश्व की रक्षा तथा कल्याण करने के उद्देश्य से प्रेरित है।
अध्यात्म पर आधारित हमारी संस्कृति ने विश्व-बंधुत्व की भावना को केंद्र में रखा है। इसीलिए, किसी एक ही दर्शन को सही और अन्य सभी को गलत सिद्ध करने से हमने परहेज किया है। हमारी परंपरा में, सत्य तक पहुंचने के सभी मार्गों का आदर किया जाता है। ‘सर्वत्र समदर्शनः’ अर्थात सब को समभाव से देखने वाला व्यक्ति ही योगी माना जाता है। समत्व का यह भाव हमारी आध्यात्मिक परंपरा का आधार है।
भगवान महावीर, भगवान बुद्ध, जगद्गुरु शंकराचार्य, संत कबीर, संत रविदास और गुरु नानक से लेकर स्वामी विवेकानन्द तक, भारत की आध्यात्मिक विभूतियों ने विश्व समुदाय को आध्यात्मिकता की संजीवनी प्रदान की है। राजनीति में भी आध्यात्मिक मूल्यों को आधार बनाने के कारण राष्ट्रपिता महात्मा गांधी साबरमती के संत कहलाए।
साथियों, इस क्षमा पर्व पर आइए हम सब अपने अंदर क्षमा की भावना को विकसित करें। उन लोगों से माफी माँगें जिनसे हमने जाने-अनजाने में कोई भूल की हो, और दूसरों की गलतियों को भी दिल से माफ करें। यह एक ऐसा कदम है, जो हमें मानसिक शांति और आंतरिक संतोष की ओर ले जाएगा।
आइए, हम सभी यह संकल्प लें कि हम अहिंसा, सत्य, और क्षमा के इस सिद्धांत को अपने जीवन में अपनाएँगे और एक बेहतर समाज के निर्माण में योगदान देंगे।
धन्यवाद,
जय हिन्द! मिच्छामि दुक्कड़म्।