SPEECH OF PUNJAB GOVERNOR AND ADMINISTRATOR, UT CHANDIGARH, SHRI GULAB CHAND KATARIA ON THE OCCASION OF INTERNATIONAL GEETA MAHOTSAV – 2024 AT KURUKSHETRA ON DECEMBER 9, 2024.

अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव के अवसर पर

राज्यपाल श्री गुलाब चंद कटारिया जी का संबोधन

दिनांकः 09.12.2024, सोमवारसमयः दोपहर 1:30 बजेस्थानः कुरूक्षेत्र

यहां उपस्थित समस्त गीता प्रेमियों को मेरा नमस्कार!

आज इस पवित्र भूमि, धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र में, जहां भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का दिव्य उपदेश दिया था, हम सभी अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव के अवसर पर एकत्र हुए हैं। 

अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव के पावन अवसर पर आयोजित सन्त सम्मेलन में आना मेरे लिए परम सौभाग्य का विषय है। मुझे श्रीमद्भगवद्गीता की इस पावन भूमि में आप सभी सन्तों के विचार सुनने का अवसर मिला है जिसके लिए मैं आयोजकों का हृदय से आभार प्रकट करता हूँ।

मैं हरियाणा सरकार के प्रति अपना आभार व्यक्त करना चाहूंगा जिसने वर्ष 2016 से इस कुरुक्षेत्र महोत्सव को अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप देकर इसे अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव के रुप में मनाना शुरू किया है। आज हरियाणा सरकार एवं स्वामी ज्ञानानंद जी महाराज के अथक प्रयासों से यह महोत्सव भारत से बाहर भी सफलतापूर्वक मनाया जा रहा है जिसमें सन्त समाज की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।

श्रीमद्भगवद्गीता का शाश्वत संदेश जो भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से अर्जुन को माध्यम बनाकर समस्त मानवता के कल्याण के लिए दिया गया था, उसी विषय पर आज इस अवसर पर चर्चा होना इस गीता महोत्सव का सबसे महत्वपूर्ण भाग बन चुका है।

यह महोत्सव न केवल भारतीय संस्कृति और सनातन परंपरा का प्रतीक है, बल्कि यह पूरी दुनिया के लिए ज्ञान, प्रेरणा और मानवता का संदेश भी है। यह और भी खुशी की बात है कि गीता से जुड़े इस महोत्सव में इतनी बड़ी संख्या में लोग उपस्थित हुए हैं। 

मेरा यह मानना है कि गीता नैतिकता और न्याय के विजय का संदेश देती है, और इस समारोह के द्वारा गीता का यह संदेश प्रसारित हो रहा है।

महाभारत के सबसे महत्वपूर्ण खंड को महाकवि वेदव्यास जी ने स्त्रीलिंग का चयन कर श्रीमद् भगवद्गीता कहा। इतने महान शब्द-शिल्पी ने स्त्रीलिंग का चयन, संभवतः मातृ-शक्ति की गरिमा को मान्यता देने की नीयत से ही किया होगा। इसे आज women empowerment कहते हैं। 

देवियो और सज्जनो,

गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं है; यह एक जीवन जीने की कला है। गीता के उपदेश हमें यह सिखाते हैं कि कर्म और धर्म के माध्यम से जीवन को कैसे संतुलित किया जा सकता है। इसमें जो ‘कर्म योग’ का संदेश है, वह आज के युग में भी उतना ही प्रासंगिक है जितना महाभारत काल में था।

महाभारत युद्ध के आरम्भ होने से पहले अर्जुन अपने परिजनों, मित्रों और आदरणीय गुरुजनों को युद्धभूमि में विपक्षी पक्ष में खड़ा देखते हैं, तो उनके मन में मोह, भय और अवसाद का सागर उमड़ पड़ता है। उस कठिन घड़ी में, वे अपने सारथी और मित्र श्रीकृष्ण से मार्गदर्शन की अपेक्षा करते हैं। श्रीकृष्ण, अर्जुन की दुविधा को दूर करने और उसे धर्म के मार्ग पर अग्रसर करने के लिए गीता के शाश्वत संदेश का उपदेश देते हैं।

श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्म का उपदेश देते हुए कहा हैः 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।

अर्थात्: तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फलों में नहीं। इसलिए कर्म के फल की चिंता मत करो और न ही अकर्मण्यता (कर्म न करने) में आसक्त हो। 

गीता का यह संदेश केवल अर्जुन के लिए नहीं, बल्कि समस्त मानव जाति के लिए प्रेरणा का स्रोत है। यह ग्रंथ केवल धार्मिक विचारों तक सीमित नहीं है, यह एक ऐसा सार्वभौमिक दर्शन प्रस्तुत करता है जो जीवन के हर पहलू को छूता है। यह हमें आत्मबोध, कर्तव्य के प्रति निष्ठा और जीवन की कठिनाइयों का साहसपूर्वक सामना करने की प्रेरणा देता है।

हम सभी जानते हैं कि पांडव महाभारत के युद्ध में न्याय के पक्ष में थे और शांति के लिए केवल पांच गाँव देने पर सहमत थे। किंतु कौरवों ने अन्यायपूर्वक सुई की नोक के बराबर जमीन भी नहीं दी। इसके बाद जो महाभारत का युद्ध हुआ, वह अन्याय के खिलाफ न्याय और अत्याचार के खिलाफ सदाचार का संघर्ष था। इस युद्ध में श्रीकृष्ण और गीता के अनन्त उपदेश ही थे, जिन्होंने पांडवों को अन्याय के खिलाफ उस संघर्ष में अंततः विजयी बनाया।

प्रिय गीता प्रेमियों,

गीता कहती है कि संसार की प्रत्येक परिस्थिति आने-जाने वाली मिलने-बिछुड़ने वाली है। मनुष्य चाहता है कि सुखदायी परिस्थिति हमेशा बनी रहे और कभी उसे दुःखों को सामना न करना पड़े। परन्तु सुखदायी परिस्थिति का जाना और दुःखदायी परिस्थिति का आना निश्चित है। यह प्रभु का एक मंगलमय विधान है। 

अतः चाहे वह साधक हो या मनुष्य, उसे हर परिस्थिति प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करनी चाहिए। इसी प्रकार निरन्तर परिवर्तनशील वस्तुओं में स्थिरता देखना भूल है। इस भूल से ममता और कामना की उत्पत्ति होती है। कामनाओं के पूर्ण न होने पर मनुष्य में क्रोध उत्पन्न होता है जोकि मनुष्य के बुद्धिनाश का कारण बनता है जिससे मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है।

गीता के तीन मुख्य योग कर्मयोग, भक्ति योग और ज्ञानयोग मानव के शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक पहलुओं का संतुलन साधने का अद्वितीय मार्ग प्रदान करते हैं। कर्मयोग हमें सिखाता है कि परिणाम की चिंता किए बिना अपने कर्तव्यों का पालन करना ही सच्चा धर्म है। भक्ति योग में भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण का मार्ग दिखाया गया है, जबकि ज्ञानयोग हमें आत्मा और परमात्मा के गहरे रहस्यों को समझने की क्षमता देता है। 

ये तीनों योग हमें परमात्मा तक पहुंचाने के साधन हैं। गीता का यह संदेश आज के समय में और भी अधिक प्रासंगिक है, जब हमारा जीवन तनाव, प्रतिस्पर्धा और भौतिक इच्छाओं से भरा हुआ है। यह हमें सिखाती है कि सच्चा सुख केवल आत्मबोध और सेवा में है।

गीता में निहित योग समस्त मानव जाति के हित के लिए है। गीता में युद्ध का परिदृश्य तो है, पर वैर-भाव नहीं है। युद्धक्षेत्र में हुए इस कृष्ण-अर्जुन-संवाद में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना बार-बार व्यक्त होती है। हमारा प्रत्येक कर्म, योग भी हो सकता है और भोग भी। यह हमारा चुनाव है कि हम इसे कर्मयोग बनाएं या कर्मभोग।

पूरी मानवता के लिए योगशास्त्र गीता अत्यंत उपयोगी है। विश्व समुदाय 21 जून को ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय सहजता और शीघ्रता के साथ इसीलिए कर पाया क्योंकि योग पूरी मानवता के कल्याण के लिए है। आधुनिक युग में, पश्चिम में अमेरिका से लेकर पूर्व में जापान तक, योग की लोकप्रियता योगशास्त्र गीता की अंतर्राष्ट्रीय और युगातीत प्रासंगिकता को रेखांकित करती है।

प्रिय साधकों,

यह महोत्सव हमें याद दिलाता है कि गीता का ज्ञान सीमाओं से परे है। यह विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों और राष्ट्रीयताओं को जोड़ने वाला एक सेतु है।

आधुनिक इतिहास में भी अत्याचार और अनैतिकता के खिलाफ संघर्ष में गीता का प्रभाव देखा जा सकता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने गीता को माता के रूप में देखा और इसे अपनी आत्मशक्ति और विवेक का स्रोत मान लिया। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जीवन की कठिनाइयों को हल करने के लिए वे गीता का सहारा लेते थे, ठीक उसी तरह जैसे वे अंग्रेज़ी के कठिन शब्दों का अर्थ जानने के लिए शब्दकोष का उपयोग करते थे। गीता एक पूर्ण ‘जीवन-संहिता’ है।

आज के युग में गीता का महत्व शिक्षा, प्रबंधन, राजनीति और सामाजिक कल्याण जैसे क्षेत्रों में भी दिखाई देता है। यह हमें नैतिकता के साथ नेतृत्व करने और समाज में शांति और समानता स्थापित करने का मार्ग दिखाती है।

गीता में सही और गलत के बीच होने वाले मनुष्य के द्वंद्व का समाधान समाहित है। क्या सही और गलत है? हम क्या करें और क्या न करें? यह संघर्ष सभी को परेशान करता है। गीता ही एक ऐसा माध्यम है जो दोराहों पर सही और गलत के बीच चुनाव करने का विवेक प्रदान करती है।

जिस कर्म को हम स्वार्थ और सुख के लिए करते हैं वह कर्मभोग बन जाता है और जब हम परोपकार के लिए कर्तव्य भाव से कर्म करते हैं तो यह कर्मयोग बन जाता है। महात्मा गांधी ने कहा था, ‘‘भारत अपने मूल स्वरूप में कर्मभूमि है, भोगभूमि नहीं।’’ कर्मयोग हमें भोगमुक्त करता है और लोक-कल्याण की दिशा में आगे बढ़ाता है।

गीता पूरे विश्व के लिए आध्यात्मिक दीप स्तम्भ है। अध्यात्म भारत की आत्मा है जो पूरे विश्व के लिए भारत का उपहार है। गीता भारतीय अध्यात्म का सबसे लोकप्रिय और प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसकी प्रासंगिकता हर युग में रही है और आगे भी बनी रहेगी।

भौतिकवाद और प्रतिस्पर्धा से घिरी, डिजिटल युग की युवा पीढ़ी में तनाव, असुरक्षा और दुविधाएं बढ़ रही हैं। ऐसे में गीता उनके लिए आध्यात्मिक औषधि सिद्ध हो सकती है। आज के डिजिटल युग में गीता के संदेश को पूरे विश्व में प्रसारित करना और भी आसान हो गया है।

देवियो और सज्जनो,

आज जब हम पर्यावरण संकट, मानसिक तनाव और सामाजिक असंतुलन जैसी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, गीता के संदेश और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं। यह महोत्सव हमें प्रेरित करता है कि हम अपने भीतर की शक्ति को पहचानें और ‘निष्काम कर्म’ का पालन करते हुए जीवन में आगे बढ़ें।

अंत में, मैं इस आयोजन के लिए सभी आयोजकों और विशेष रूप से स्वामी ज्ञानानंद जी महाराज का आभार व्यक्त करता हूं, जिन्होंने गीता के अमर संदेश को जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास किया। अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव उनके दूरदर्शी नेतृत्व का एक अनुपम उदाहरण है।

मैं इस मंच के माध्यम से सभी से, विशेष रूप से, युवाओं से अपील करता हूं कि वे गीता के संदेश को अपने जीवन में अपनाएं और इसे दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाएं।

अंत में मैं भगवदगीता के एक संदेश के साथ अपनी वाणी को विराम देना चाहूंगाः- फूल को देखो, यह कितनी उदारता से सुगंध और शहद वितरित करता है। यह सभी को देने का ही कार्य करता है। जब उसका काम पूरा हो जाता है, तो वह मुर्झाकर चुपचाप गिर जाता है। फूल की तरह बनने की कोशिश करो, जीवन में महानता पा लेने के बावजूद विनम्र बने रहो।

मैं भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करता हूं कि वे हमें सदैव धर्म और सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दें।

धन्यवाद,

जय हिन्द!