SPEECH OF GOVERNOR PUNJAB AND ADMINISTRATOR, UT CHANDIGARH, SHRI GULAB CHAND KATARIA on the occasion of concluding ceremony of Maharishi Dayanand Saraswati's bicentenary celebrations by the Veda Vidya Research Institute in Kurukshetra on February 2, 2025.

महर्षि दयानंद सरस्वती द्वि-जन्म शताब्दी समापन समारोह पर

राज्यपाल श्री गुलाब चंद कटारिया जी का संबोधन

दिनांकः 02.02.2025, रविवारसमयः दोपहर 12:00 बजेस्थानः कुरूक्षेत्र

सभी को मेरा नमस्कार!

आज हम सभी यहां एक ऐतिहासिक और पावनअवसर पर एकत्रित हुए हैं। यह अवसर है वेदों के प्रकांडविद्वान, समाज सुधारक और आर्य समाज के संस्थापकमहर्षि दयानंद सरस्वती जी की द्वि-जन्म शताब्दी वर्ष केसमापन समारोह का, जिसके अंतर्गत 12 दिवसीय चतुर्वेदपारायण महायज्ञ का आयोजन किया गया है।

यह आयोजन केवल एक धार्मिक अनुष्ठान भर नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, आध्यात्मिकता, और वेदों केज्ञान को जन-जन तक पहुंचाने का एक पवित्र संकल्प भीहै।

देवियो और सज्जनो,

हमारी भारत-भूमि धन्य रही है, जिसने महर्षि दयानंदसरस्वती जैसी अद्भुत विभूतियों को जन्म दिया है। महर्षिदयानंद सरस्वती जी का व्यक्तित्व और कार्य इतनाप्रभावशाली था कि उन्हें भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूतों मेंसे एक माना जाता है। उनके विचारों और आदर्शों ने नकेवल उनके समकालीनों को प्रेरित किया, बल्कि आनेवाली पीढ़ियों के लिए भी एक मार्गदर्शक बने।

1824 में गुजरात के टंकारा में जन्मे महर्षि दयानंदसरस्वती जी का भारतीय समाज और विश्व पर गहराप्रभाव पड़ा। वे केवल एक विद्वान नहीं थे, बल्कि एकदूरदर्शी थे, जिन्होंने अपने जीवन को वेदों के ज्ञान केपुनरूद्धार, सामाजिक सुधारों और शिक्षा के प्रचार-प्रसार मेंसमर्पित किया।

महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने भारत को वेदों के प्रकाशमें जागृत करने का जो महान कार्य किया, वह आज भी हमेंप्रेरणा देता है। उन्होंने न केवल सामाजिक बुराइयों केखिलाफ आवाज उठाई, बल्कि उन्होंने समाज में व्याप्तअज्ञानता, अंधविश्वास और कुरीतियों को दूर कर एक नएभारत के निर्माण की नींव भी रखी। उनका उद्देश्य केवल धर्मका प्रचार नहीं था, बल्कि धर्म के माध्यम से समाज मेंजागरूकता, शिक्षा और नैतिक मूल्यों का संचार करना भीथा।

देवियो और सज्जनो,

चतुर्वेद पारायण महायज्ञ केवल एक यज्ञ नहीं है, बल्कि यह वेदों के गूढ़ ज्ञान, आध्यात्मिक ऊर्जा और शुद्धविचारों का प्रसार करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम भी है।इस यज्ञ के माध्यम से हम चारों वेदों, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के श्लोकों का पाठ कर रहे हैं, जिससे न केवल वायुमंडल में शुद्धि और सकारात्मक ऊर्जाका संचार होगा, बल्कि समाज में ज्ञान, प्रेम और समरसताकी भावना भी विकसित होगी।

महर्षि दयानंद जी ने हमें ‘‘वेदों की ओर लौटो’’ कासंदेश दिया था। वेदों का ज्ञान केवल धार्मिक अनुष्ठानोंतक सीमित नहीं है, बल्कि वे हमें सही आचरण, नीति, कर्तव्य और मानवता के उत्थान का मार्ग भी दिखाते हैं। इसयज्ञ का उद्देश्य भी यही है कि हम सभी वेदों के वास्तविकसंदेश को आत्मसात करें और अपने जीवन में उसे अपनाएं।

महर्षि दयानंद की शिक्षाएँ वेदों के शाश्वत सिद्धांतों परआधारित थीं। उनका मानना था कि वेद सत्य और ज्ञान कासर्वोत्तम स्रोत हैं, और मानवता को धर्म और ज्ञान की ओरमार्गदर्शन करने की शक्ति रखते हैं। उनका मानना था किआधुनिक समाज वेदों के उपदेशों से भटक चुका है, जिसकेकारण अंधविश्वास, जातिवाद और सामाजिकअसमानताएँ पैदा हुई हैं।

महर्षि दयानंद सरस्वती ने तर्कसंगत सोच औरवैज्ञानिक अन्वेषण को भी बढ़ावा दिया। उस समय जबभारत उपनिवेशी शासन के अधीन था, और पारंपरिकव्यवस्था अंधविश्वास और अज्ञानता से घिरी हुई थी, उन्होंनेलोगों को विचारशीलता, अंधविश्वासों पर सवाल उठानेऔर ज्ञान की खोज हेतु प्रोत्साहित किया। उनका मानना थाकि असली आध्यात्मिकता केवल विधि-विधानों में नहीं, बल्कि अच्छाई और समाज की भलाई के लिए जीने में है।

शिक्षा के क्षेत्र में उनके विचार क्रांतिकारी थे। उनकामानना था कि शिक्षा केवल ज्ञान अर्जित करने तक सीमितनहीं होनी चाहिए, बल्कि यह चरित्र निर्माण, मूल्य-निर्माणऔर व्यक्तियों को समाज में सकारात्मक योगदान देने केलिए सशक्त बनाने वाली होनी चाहिए।

महर्षि दयानंद जी का मानना था कि किसी भी राष्ट्र यासमाज की उन्नति का आधार उसकी शिक्षा व्यवस्था होतीहै। इसलिए, उन्होंने भारतीय समाज में शिक्षा केप्रचार-प्रसार के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान दिया।उनका लक्ष्य केवल धार्मिक या आध्यात्मिक ज्ञान तकसीमित नहीं था, बल्कि वे चाहते थे कि लोग विज्ञान, तर्कऔर आधुनिक ज्ञान से भी अवगत हों।

उन्होंने गुरुकुल शिक्षा प्रणाली को पुनर्जीवित करने कीपहल की, जिससे विद्यार्थियों को संस्कार, नैतिकता औरशुद्ध ज्ञान प्राप्त हो सके। उनके प्रयासों से प्रेरित होकरहरिद्वार, उत्तराखंड में वर्ष 1902 में गुरुकुल कांगड़ीविश्वविद्यालय की स्थापना हुई, जो आज भी उनके विचारोंऔर शिक्षाओं को आगे बढ़ा रहा है।

देवियो और सज्जनो,

महर्षि दयानंद जी की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एकथी वर्ष 1875 में आर्य समाज की स्थापना। आर्य समाजका उद्देश्य सत्य, नैतिकता और सामाजिक न्याय के मूल्योंको बढ़ावा देना था। इसने मूर्तिपूजा, बाल विवाह औरजातिवाद की प्रथा को समाप्त करने की मांग की।

अत्यंत हर्ष और गौरव का विषय है कि आर्य समाजअपनी 150 वर्ष की गौरवमयी यात्रा के दौरान एक प्रखरसामाजिक, धार्मिक और शैक्षणिक आंदोलन के रूप मेंउभरा है। इस संस्था ने न केवल भारतीय समाज को नईदिशा दी, बल्कि वैदिक मूल्यों और सिद्धांतों को पुनर्जीवितकरके विश्व को एक नई प्रेरणा भी प्रदान की। इसने अपनेडेढ़ सदी के इतिहास में अनेक चुनौतियों का सामना किया, लेकिन हर बार यह संस्था और मजबूत होकर उभरी।

आर्य समाज ने शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन कासबसे प्रभावी साधन माना है। इसके तहत देश भर में अनेकशिक्षण संस्थानों, स्कूलों, कॉलेजों और गुरुकुलों कीस्थापना की गई है। इन संस्थानों में न केवल शैक्षणिकज्ञान दिया जाता है, बल्कि नैतिक मूल्यों और वैदिकसिद्धांतों का भी प्रशिक्षण दिया जाता है। आर्य समाज नेमहिलाओं की शिक्षा पर विशेष जोर दिया और लड़कियोंके लिए अलग से स्कूल खोले, जो उस समय एकक्रांतिकारी कदम था।

आर्य समाज ने न केवल भारत में, बल्कि विश्व भर मेंअपनी पहचान बनाई है। इसने वैदिक संस्कृति औरसिद्धांतों को विश्व के कोने-कोने तक पहुंचाया है और लोगोंको सत्य, न्याय, और समानता के मार्ग पर चलने के लिएप्रेरित किया है।

आज, जब हम आर्य समाज की 150 वर्ष की यात्रा कोदेखते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि इस संस्था ने समाज कोबदलने और उसे नई दिशा देने में अहम भूमिका निभाई है।आर्य समाज के सिद्धांत और आदर्श आज भी प्रासंगिक हैंऔर हमें एक बेहतर समाज के निर्माण के लिए प्रेरित करतेहैं।

आर्य समाज को अपनी गौरवमयी यात्रा को आगे बढ़ातेहुए नई चुनौतियों का सामना करना होगा। आज के समयमें जहां अंधविश्वास, भौतिकता, और सामाजिकअसमानता बढ़ रही है, वहां आर्य समाज को अपने संदेशको और व्यापक बनाना होगा। हमें युवाओं को वैदिकमूल्यों और सिद्धांतों से परिचित कराना होगा और उन्हेंसमाज के उत्थान के लिए प्रेरित करना होगा।

आर्य समाज केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एकविचारधारा, एक आंदोलन और एक क्रांति है। यह आंदोलनतब तक चलता रहेगा जब तक समाज पूर्ण रूप से सत्य, प्रेम, समानता और नैतिकता पर आधारित नहीं हो जाता।

देवियो और सज्जनो,

आज जब समाज अनेक प्रकार की चुनौतियों औरसंघर्षों से जूझ रहा है, तब महर्षि दयानंद सरस्वती जी केविचार और उनकी शिक्षाएँ और भी अधिक प्रासंगिक होजाती हैं। उन्होंने शिक्षा, समानता, नारी सशक्तिकरण, स्वराज और सामाजिक सुधार पर विशेष बल दिया था।उनकी दृष्टि में धर्म का सही अर्थ केवल पूजा-पाठ तकसीमित नहीं था, बल्कि यह जीवन के प्रत्येक पहलू मेंसद्गुणों को आत्मसात करने और सत्य के मार्ग पर चलने कीप्रेरणा देता है।

महान आध्यात्मिक पथ-प्रर्दशक श्री ऑरोबिंदो ने महर्षिदयानंद सरस्वती की महानता को व्यक्त करते हुए कहा थाकि वे मनुष्यों और संस्थाओं के मूर्तिकार थे। यह कथनउनके व्यक्तित्व और कार्यों की गहराई को दर्शाता है।महर्षि दयानंद ने न केवल व्यक्तिगत स्तर पर लोगों कोजागृत किया, बल्कि उन्होंने संस्थाओं के माध्यम से समाजको सुधारने और शिक्षित करने का भी प्रयास किया।

स्वामी जी के आदर्शों का गहरा प्रभाव लोकमान्यतिलक, लाला हंसराज, स्वामी श्रद्धानंद और लालालाजपत राय जैसे महापुरुषों पर भी पड़ा। स्वामी जी औरउनके असाधारण अनुयायियों ने भारत के लोगों में नईचेतना और आत्म-विश्वास का संचार किया। 

स्वामी जी ने समाज सुधार का बीड़ा उठाया और सत्यको सिद्ध करने के लिए 1875 में ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामकअमर ग्रंथ की रचना की। महात्मा गांधी ने भारतीयराजनीति में जन-जन को शामिल करते हुए उसेआध्यात्मिक आधार दिया और ‘सत्य के प्रयोग’नामकआत्मकथा की रचना की। ये दोनों ग्रंथ हमारे देशवासियोंका ही नहीं, बल्कि मानवता का मार्गदर्शन करते रहे हैं औरकरते रहेंगे।

‘सत्यार्थ प्रकाश’केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्किसमाज सुधार, राष्ट्रवाद, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और मानवताके कल्याण का मार्गदर्शक ग्रंथ है। महर्षि दयानंद सरस्वतीजी ने इस ग्रंथ के माध्यम से यह संदेश दिया कि वेद हीसच्चा ज्ञान हैं और उनमें ही संपूर्ण मानवता का कल्याणनिहित है। उन्होंने धर्म के नाम पर हो रही अंधविश्वासपूर्णपरंपराओं का खंडन किया और वेदों को वैज्ञानिक एवंतर्कसंगत दृष्टिकोण से अपनाने का आग्रह किया।

देवियो और सज्जनो,

भारत के आधुनिक इतिहास का अध्ययन करने वालेयह जानते हैं कि आरंभ में स्वामी जी संस्कृत में ही अपनीबात कहते और लिखते थे। लेकिन उन्होंने यह सोचा किउन्हें सामान्य लोगों से सीधा संपर्क बनाना चाहिए।इसलिए, स्वामी जी ने समाज को सही दिशा दिखाने केलिए जन-भाषा हिन्दी का प्रयोग करना शुरू किया।

स्वामी दयानंद सरस्वती जी के हिंदी के प्रयोग ने उनकेसंदेश को व्यापक बना दिया। उनकी बातें आम लोगों तकपहुंचीं और उन्हें जागृत करने में सफलता मिली। हिंदी केमाध्यम से उन्होंने न केवल धार्मिक पुनर्जागरण को बढ़ावादिया, बल्कि सामाजिक सुधार और शिक्षा के प्रसार में भीमहत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके इस कदम ने हिंदी को एकनई गरिमा और पहचान दिलाई।

महात्मा गांधी मानते थे कि छुआ-छूत को दूर करने केलिए स्वामी दयानंद जी का अभियान, समाज सुधार काउनका सबसे महत्वपूर्ण कार्य था। गांधीजी ने स्वयं भीस्वामी जी के उस अस्पृश्यता उन्मूलन अभियान कोसर्वाधिक महत्व दिया।

स्वामी जी के समानता तथा समावेश के आदर्शों केअनुरूप, अखिल भारतीय दयानंद सेवाश्रम संघ द्वाराजनजातीय आबादी वाले क्षेत्रों में विद्यालय चलाए जा रहेहैं; आदिवासी युवाओं के लिए कौशल विकास केंद्र चलाएजा रहे हैं। इन स्कूलों और केन्द्रों में छात्रों को निशुल्कआवास और शिक्षा प्रदान की जाती है।

महर्षि दयानंद सरस्वती जी का जीवन साहस, सत्यऔर सामाजिक सुधार के प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता काप्रतीक था। उन्होंने भारत के सामाजिक और धार्मिकपरिदृश्य में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए जिस साहसऔर निष्ठा का परिचय दिया, वह किसी भी युग में दुर्लभ है।एक ऐसे समय में जब समाज रूढ़ियों, अंधविश्वासों औरकुरीतियों से जकड़ा हुआ था, उन्होंने अपने विचारों कीमशाल जलाकर पूरे देश को ज्ञान, चेतना और सुधार कीओर प्रेरित किया।

महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने सत्य को अपने जीवनका आधार बनाया। उनके लिए सत्य केवल एक सिद्धांतनहीं, बल्कि एक जीवन शैली थी। उन्होंने वेदों के शुद्ध औरवास्तविक ज्ञान को अपनाया और अपने अनुयायियों को भी‘‘सत्य बोलो और सत्य का अनुसरण करो’’ का संदेशदिया।

महर्षि दयानंद सरस्वती जी का जीवन साहस औरसामाजिक सुधार के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतीक था।पारंपरिक और रूढ़िवादी समाज से विरोध का सामना करतेहुए भी उन्होंने अपने सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए कभी भीसत्य बोलने में संकोच नहीं किया, चाहे वह कितना भीअप्रचलित क्यों न हो।

देवियो और सज्जनो,

भारत आज अमृतकाल में प्रवेश कर चुका है, जिसकालक्ष्य 2047 तक भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाना है।इसके लिए हमें महर्षि दयानंद सरस्वती जी की शिक्षाओं सेप्रेरणा लेकर-

• शिक्षा को सर्वसुलभ बनाना होगा।

• नारी सशक्तिकरण को प्राथमिकता देनी होगी।

• भ्रष्टाचार और अंधविश्वास को समाप्त करना होगा।

• राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समरसता को बढ़ावादेना होगा।

• आर्थिक आत्मनिर्भरता और स्वदेशी को अपनानाहोगा।

महर्षि दयानंद सरस्वती जी का जीवन हमें यह सिखाताहै कि जब तक हम सत्य, न्याय, नैतिकता और शिक्षा केमार्ग पर नहीं चलेंगे, तब तक वास्तविक विकास संभव नहींहोगा।

देवियो और सज्जनो,

महर्षि दयानंद सरस्वती जी की 200वीं जयंती हमें यहयाद दिलाती है कि हमारा अतीत कितना गौरवशाली थाऔर हमारा भविष्य कितना उज्ज्वल हो सकता है यदि हमउनके विचारों और शिक्षाओं को आत्मसात करें। यहअवसर हमें सामाजिक सुधार, शिक्षा, महिलासशक्तिकरण और राष्ट्रवाद की दिशा में न केवल सोचने, बल्कि कार्य करने का भी आह्वान करता है।

आज, जब हम महर्षि दयानंद सरस्वती जी की धरोहरपर विचार करते हैं, तो हमें यह सवाल करना चाहिए किक्या हम उनके सत्य, न्याय और समानता आधारित समाजकी कल्पना को अपना रहे हैं? क्या हम शिक्षा को बढ़ावादेने, सामाजिक असमानताओं को समाप्त करने और तर्कऔर करुणा के सिद्धांतों पर आधारित एक नया संसारबनाने के लिए अपना योगदान दे रहे हैं?

हमें यह याद रखना चाहिए कि महर्षि दयानंद सरस्वतीजी ने जो संदेश दिया था, वह केवल उनके समय के लिएनहीं था, बल्कि वह आज भी हमारे लिए मार्गदर्शक है। यदिहम उनके सपनों को साकार करना चाहते हैं, तो हमें अपनेजीवन में सत्य, न्याय, और समानता के मूल्यों को अपनानाहोगा और समाज के उत्थान के लिए निरंतर प्रयास करनाहोगा।

इस द्वि-जन्म शताब्दी समारोह और चतुर्वेद पारायणमहायज्ञ के माध्यम से हम उनके विचारों और सिद्धांतों कोपुनः स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। यह केवल एकश्रद्धांजलि नहीं है, बल्कि यह हमारे संस्कृतिक औरआध्यात्मिक पुनर्जागरण का एक अवसर भी है।

मैं इस अवसर पर सभी यज्ञाचार्यों, विद्वानों, आर्यसमाज के अनुयायियों और इस पवित्र आयोजन से जुड़ेप्रत्येक व्यक्ति को हार्दिक शुभकामनाएँ देता हूँ।

आइए, हम सब संकल्प लें कि महर्षि दयानंद सरस्वतीजी के दिखाए मार्ग पर चलते हुए एक समर्थ, समृद्ध औरजागरूक भारत का निर्माण करेंगे।

धन्यवाद,

जय हिंद!