SPEECH OF HON’BLE GOVERNOR PUNJAB AND ADMINISTRATOR, UT CHANDIGARH, SHRI GULAB CHAND KATARIA ON THE OCCASION OF SEMINAR ON 530TH JAYANTI BHAGAT KABIR JI AT CHANDIGARH ON JUNE 11, 2025.

भगत कबीर जी की 630वीं जयंती पर आयोजित सेमिनार पर
राज्यपाल श्री गुलाब चंद कटारिया जी का संबोधन
दिनांकः 11.06.2025, बुधवार समयः दोपहर 12:00 बजे स्थानः मोहाली
 
नमस्कार!
मैं आज स्वयं को अत्यंत सौभाग्यशाली मानता हूं कि मुझे भगत कबीर जी की 630वीं जयंती के पावन अवसर पर भगत कबीर वेलफेयर फाउंडेशन द्वारा आयोजित इस राज्य स्तरीय सेमिनार के अवसर पर आप सभी के बीच उपस्थित होने का अवसर प्राप्त हुआ। 
यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि वर्ष 2015 में स्थापित यह संस्था न केवल भगत कबीर जी की शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार में लगी है, बल्कि वास्तविक समाजसेवा के क्षेत्र में भी निरंतर कार्य कर रही है।
निशुल्क चिकित्सा जांच शिविर, रक्तदान शिविर, जरूरतमंद लड़कियों की शादी में सहयोग, तथा महिला सशक्तिकरण के लिए सम्मान समारोह जैसे अनेक कार्य इस संस्था के व्यापक दृष्टिकोण को दर्शाते हैं। इस प्रकार की गतिविधियाँ यह प्रमाणित करती हैं कि भगत कबीर जी की शिक्षाएँ केवल विचार नहीं, बल्कि कर्म की प्रेरणा हैं। 
देवियो और सज्जनो,
यह सेमिनार केवल एक आध्यात्मिक या शैक्षणिक मंच नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज के उस उजाले से जुड़ने का माध्यम है, जिसकी लौ सदियों से समरसता, सच्चाई और समानता का संदेश देती आई है।
आज हम सब यहां उत्तर प्रदेश के वाराणसी (काशी) में जन्मे जिस महान संत का स्मरण कर रहे हैं, वे यद्यपि, पुस्तकीय ज्ञान से वंचित रहे, फिर भी उन्होंने, साधु-संगति से अनुभव-सिद्ध ज्ञान प्राप्त किया। 
उस ज्ञान को उन्होंने पहले स्वयं जांचा-परखा, आत्मसात किया और तब लोगों के सामने प्रकट किया। इसीलिए, आज सैकड़ों वर्ष गुजर जाने के बाद भी, उनकी शिक्षाएं जन-साधारण से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग में एक समान लोकप्रिय हैं।
भगत कबीर जी भक्ति आंदोलन के एक प्रमुख स्तंभ थे, जिसने ईश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण को केंद्र में रखा। कबीर जी ने संत रामानंद और शेख तक़ी जैसे गुरुओं से आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्राप्त किया, जिसने उनके अद्वितीय दर्शन को आकार दिया।
उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में कबीर बीजक (कविता और दोहे), कबीर परचाई, साखी ग्रंथ, आदि ग्रंथ (सिख धर्मग्रंथ), और कबीर ग्रंथावली (राजस्थान) शामिल हैं।
कबीर जी की रचनाएँ ब्रजभाषा और अवधी जैसी लोकभाषाओं में रची गईं, जिनका भारतीय साहित्य और हिंदी भाषा के विकास पर गहरा प्रभाव पड़ा।
ऐसी मान्यता है कि कबीर साहब ने बंगाल से लेकर पंजाब, राजस्थान और गुजरात तक की यात्रा की। वे, भारत से बाहर ईरान और बलख भी गए। 
संत कबीर जिस समय प्रकट हुए थे, वह समय, भारत में विदेशी आक्रांताओं के आक्रमणों, मार-काट और लूट-पाट का था। ऐसे विषम वातावरण में, श्रद्धा और विश्वास का, प्रेम और मैत्री का संदेश फैलाने के लिए कबीर साहब, स्वयं लोगों के बीच गए।
संत कबीर, लोगों के साथ सीधा संवाद करते थे। उस समय ऊंच-नीच, जात-पात और छूआछूत की गहरी नींद में डूबी जनता को झकझोर कर जगाने के लिए ऐसा करना जरूरी भी था। क्योंकि जागृत व्यक्ति ही समाज का कल्याण कर सकता है इसलिए, उन्होंने समाज को पहले जगाया और फिर चेताया।
वे सच्चे पीर थे। वे, लोगों की पीड़ा समझते थे और उस पीड़ा को दूर करने का उपाय भी करते थे। उनका कहना था कि - कबीर सोई पीर है, जो जाने पर पीर।
भगत कबीर जी एक गरीब और वंचित परिवार में पैदा हुए थे। लेकिन उन्होंने उस वंचना को कभी अपनी कमजोरी नहीं समझा, बल्कि उसे अपनी ताकत बनाया। 
वे कपड़ा बुनने का काम करते थे। आप लोग जानते ही हैं कि अच्छा कपड़ा बुनने के लिए सूत कताई और रंगाई से लेकर, ताना-बाना तैयार करने तक बहुत सावधानी रखनी होती है।
भगत कबीर जी ने उस समय के विभाजित समाज में समरसता लाने के लिए सामाजिक मेल-जोल की बारीक कताई की। ज्ञान के रंग से सुंदर रंगाई की। एकता एवं समन्वय का मजबूत ताना-बाना तैयार किया और समरस समाज के निर्माण की चादर बुनी। 
भगत कबीर जी ने सदैव इस बात पर बल दिया कि समाज के कमजोर से कमजोर वर्ग के प्रति संवेदना और सहानुभूति रखे बिना, मानवता की रक्षा नहीं हो सकती। असहाय लोगों की सहायता किए बिना, समाज में समरसता नहीं आ सकती। मनुष्य मात्र से प्रेम ही सच्चा मानव धर्म है। 
साथियो,
भारत का यह सौभाग्य रहा है कि समाज में समय-समय पर उत्पन्न होने वाली कुरीतियों और असमानताओं को दूर करने के लिए ऋषि-मुनि, आचार्य-सदगुरु, समाज-सुधारक और संत प्रकट होते रहे हैं। इसी परंपरा में कबीर जी ने, उस युग में प्रचलित विचारधाराओं को समन्वित करके, उन्हें सहज लोक-बानी में प्रस्तुत किया।
हमारे समाज ने, उनकी बानी और शिक्षा को दिल से अंगीकार किया। यह देश हमेशा ही अपने में सुधार के लिए तत्पर रहा है। 
भगत कबीर जी के समय में, ऐसी मान्यता थी कि काशी में शरीर छोड़ने वाले लोग स्वर्ग में जाते थे, और मगहर में मरने वाले लोग नरक में जाते थे। इस अंधविश्वास को झूठा साबित करने के लिए, कबीर जी अपने अंतिम दिनों में मगहर चले आए। 
वे एक महान संत थे, सहज संत थे। सहज होना, वास्तव में बहुत कठिन होता है। आसक्ति आसानी से नहीं छूटती। कबीर जी कहते थे कि - सहज-सहज सब ही कहें, सहज न चीन्हे कोय, जिन सहजै विषया तजी, सहज कहीजै सोय।
भगत कबीर जी यह मानते थे कि ईश्वर कोई बाहरी सत्ता नहीं है। वह तो कण-कण में व्याप्त है। उसे बाहर क्यों ढूंढ़ा जाए, वह तो हमारे अंदर है, बिल्कुल उसी तरह जैसे कस्तूरी का वास हिरण की नाभि में होता है - कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूंढे बन मांहि, ऐसेहि घट-घट राम हैं, दुनिया देखत नाहिं।
कबीर जी ने समाज को, समानता और समरसता का मार्ग दिखाया। उन्होंने कुरीतियों, आडंबरों और भेद-भाव को दूर करने का बीड़ा उठाया और गृहस्थ जीवन को भी संतों की तरह जिया। निकट अतीत में, वैसा ही जीवन, संत रविदास और गुरु नानक ने व्यतीत किया।
भगत कबीर जी की पवित्र वाणी ने, सुदूर पूर्व में श्रीमंत शंकरदेव से लेकर पश्चिम में संत तुकाराम और उत्तर में गुरु नानक से लेकर छत्तीसगढ़ में गुरु घासीदास तक को प्रभावित किया।
भगत कबीर जी का जीवन एक ऐसे दीपक की तरह था, जिसकी लौ ने सामाजिक अंधकार को चुनौती दी, और जाति, पाखंड व भेदभाव के खिलाफ एक निर्भीक आवाज बनी। उनके दोहे आज भी हमारी अंतरात्मा को झकझोरते हैं।
संत कबीर जी का जीवन सार्वभौमिक मानवता और समरसता का प्रतीक था। वे किसी एक धर्म या समुदाय तक सीमित नहीं थे, बल्कि प्रेम, करुणा और सत्य पर आधारित निर्गुण भक्ति के मार्गदर्शक थे। उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की जहाँ इंसानियत सर्वोपरि हो।
उनका समावेशी दृष्टिकोण उन्हें आज भी प्रासंगिक बनाए हुए है। मैं समझता हूं कि कबीर जी के दोहे केवल पढ़ने के लिए नहीं, बल्कि उन्हें जीवन में उतारना ही उनका सच्चा सम्मान है।
देवियो और सज्जनो,
इस सेमिनार के दौरान डॉ. कुंवर विजय प्रताप सिंह, पूर्व कुलपति श्री कुलदीप अग्निहोत्री और बीबी परमजीत कौर जैसे विद्वान वक्ताओं ने भगत कबीर जी की वाणी एवं उनके जीवन के आदर्शों को श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज बानियों के आलोक में अत्यंत सारगर्भित रूप से प्रस्तुत किया है। यह आयोजन न केवल आज की पीढ़ी को, बल्कि आगामी पीढ़ियों को भी प्रेरणा देता रहेगा।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में भगत कबीर जी के लगभग 227 शबद संकलित हैं। उनका प्रसिद्ध दोहाः ‘‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।’’, आज भी हमें यह सिखाता है कि किसी व्यक्ति की पहचान उसकी जाति या बाहरी रूप से नहीं, बल्कि उसके ज्ञान, कर्म और विचारों से होती है। 
आज यहाँ मैं देख रहा हूं कि समाज के विभिन्न वर्गों से भारी संख्या में लोग इस आयोजन में उपस्थित हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि भगत कबीर जी की वाणी आज भी जन-जन के अंतःकरण को स्पर्श करती है।
अंत में, मैं भगत कबीर वेलफेयर फाउंडेशन के समस्त सदस्यों को इस आयोजन की उत्कृष्ट योजना और सफलता के लिए हार्दिक बधाई देता हूँ।
आइए, हम सब मिलकर इस संकल्प को दोहराएं कि हम भगत कबीर जी की शिक्षाओं को न केवल सुनेंगे, बल्कि अपने जीवन में आत्मसात करके एक समरस, संवेदनशील और नैतिक समाज के निर्माण में अपनी भूमिका निभाएंगे।
‘‘साईं इतना दीजिए, जा में कुटुंब समाय।
मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय।’’
इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपनी वाणी को विराम देता हूँ।
धन्यवाद,
जय हिन्द!