SPEECH OF PUNJAB GOVERNOR AND ADMINISTRATOR, UT CHANDIGARH, SHRI GULAB CHAND KATARIA ON THE OCCASION OF RELEASE CEREMONY OF COMMEMORATIVE COIN & POSTAL STAMP BY GOI IN HOUR OF JAIN SAINT AND FREEDOM FIGHTER ACHARYA JAWAHAR LAL JI MAHARAJ ON NOVEMBER 16, 2
- by Admin
- 2025-11-11 17:15
जैन संत आचार्य जवाहर लाल जी महाराज के सम्मान में स्मृति सिक्का और स्मृति डाक टिकट के विमोचन के अवसर पर राज्यपाल श्री गुलाब चंद कटारिया जी का संबोधनदिनांकः 16.11.2025, रविवार समयः सुबह 11:15 बजे स्थानः राजभवन मुंबई
नमस्कार!
जैन संत आचार्य जवाहर लाल जी महाराज की 150वीं जयंती वर्ष (1875-2025) के अवसर पर उनके सम्मान में स्मृति सिक्का और स्मृति डाक टिकट के विमोचन जैसे ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक समारोह में उपस्थित होना मेरे लिए अत्यंत गौरव और सौभाग्य की बात है।
मैं ‘जसकरण बोथरा फाउंडेशन’ और भारत सरकार को इस ऐतिहासिक पहल के लिए हार्दिक बधाई देता हूँ।
मैं यह भी उल्लेख करना चाहता हूँ कि सन् 2004 में, मेरे अध्यक्षता काल में, राजस्थान फिलैटेलिक सलाहकार बोर्ड का गठन श्री सिद्धार्थ बोथरा द्वारा किया गया था। बोर्ड की प्रथम बैठक में उन्होंने आचार्य जवाहर लाल जी महाराज पर स्मारक डाक टिकट जारी करने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया था।
हालांकि उस समय भारत सरकार ने इस प्रस्ताव को स्वीकृति नहीं दी, परंतु इस प्रस्ताव के प्रथम दिन से ही मैं इस यात्रा का भागीदार रहा हूँ, और आज इसके विमोचन समारोह में उपस्थित होना मेरे लिए अद्वितीय सम्मान और गर्व का क्षण है।
दो दशकों तक श्री सिद्धार्थ बोथरा ने अदम्य धैर्य और निरंतर प्रयास से इस प्रस्ताव को आगे बढ़ाया। आज उनके अथक प्रयासों से यह सपना साकार हुआ है। यह केवल आचार्य जी को श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि यह समर्पण, दृढ़ता और सेवा भाव की भी विजय है।
आज हम केवल सिक्का या डाक टिकट जारी नहीं कर रहे हैं, हम भारत की आध्यात्मिक और नैतिक जागृति के उस अध्याय का उत्सव मना रहे हैं जिसे आचार्य जवाहर लाल जी महाराज के जीवन और उपदेशों ने प्रकाशित किया।
स्वतंत्रता संग्राम के प्रेरणा-पुरुष आचार्य जी दूरदर्शी संत थे जिन्होंने अपने ज्ञान, करुणा और सत्य के बल पर राष्ट्र और समाज का मार्ग प्रशस्त किया।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अनेक राष्ट्रीय नेताओं ने उनसे मार्गदर्शन प्राप्त किया, जिनमें लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, पंडित मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, जमनालाल बजाज, मोरारजी देसाई, महात्मा गांधी, जिनके अहिंसा और सत्याग्रह के विचारों पर जैन दर्शन का गहरा प्रभाव था, शामिल हैं। इन महान नेताओं ने आचार्य जी की शिक्षाओं से निडरता, अनुशासन और आत्मशुद्धि का बल पाया।
स्वतंत्रता संग्राम के समय उन्होंने अपने प्रवचनों और जन-जागरण अभियानों के माध्यम से राष्ट्र की चेतना को प्रज्वलित किया। उन्होंने सत्य, अहिंसा, संयम, त्याग, चरित्र और स्वदेशी के आदर्शों को जन-जन तक पहुँचाने का कार्य किया। उनका मानना था कि भारत की वास्तविक आज़ादी केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि नैतिक और आत्मिक स्वतंत्रता में निहित है। उन्होंने हर नागरिक से आह्वान किया कि वह अपने भीतर के भय और लालच से मुक्त होकर सत्य के मार्ग पर चले, यही वास्तविक स्वराज का मार्ग है।
उन्होंने युवाओं और समाज को सिखाया कि जीवन का सार सफलता या सुविधा में नहीं, बल्कि मूल्यों में है। उन्होंने बताया कि संवेदनशीलता पर संयम, सुविधा पर अनुशासन, और स्वार्थ पर सेवा को प्राथमिकता देनी चाहिए। जब मनुष्य भावनाओं में विवेक, जीवन में अनुशासन और व्यवहार में सेवा का भाव रखता है, तभी उसका जीवन सार्थक बनता है। उनका सच्चा संदेश यही था कि संयम, अनुशासन और सेवा ही मनुष्य के चरित्र की पहचान हैं।
उनके आश्रम जागृति के केंद्र बन गए, जहाँ क्रांतिकारियों को साहस मिला, सुधारकों को दिशा मिली, और समाज को सत्य और अहिंसा की शक्ति का बोध हुआ। उन्होंने सिद्ध किया कि सच्ची राष्ट्रभक्ति, चरित्र की पवित्रता से आरम्भ होती है।
आचार्य श्री जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता के प्रखर विरोधी थे। उन्होंने समाज में समानता, गरिमा और समावेशिता का संदेश फैलाया। उनका स्पष्ट मत था कि “मनुष्य की पहचान उसकी आत्मा से होती है, जाति से नहीं।” उन्होंने समाज के सभी वर्गों को एक समान दृष्टि से देखने की प्रेरणा दी। उनके प्रवचनों ने समाज के उच्च और निम्न वर्गों के बीच की दीवारों को तोड़ने का कार्य किया, जिससे सामाजिक एकता की भावना मजबूत हुई।
उन्होंने तंत्रवाद, अंधविश्वास और रूढ़िवाद के विरुद्ध आवाज उठाई। उनके अथक प्रयासों से साधु-संघ में अनुशासन, मर्यादा और व्यवस्था की स्थापना हुई। उन्होंने साधुओं को केवल साधना का नहीं, बल्कि कर्तव्य और चरित्र का भी संदेश दिया।
तीन वर्षों का कठोर मौन व्रत, अनेक वर्षों की तपस्या और 10 हजार से अधिक प्रवचनों के माध्यम से उन्होंने यह सिद्ध किया कि वे केवल कथन के संत नहीं, बल्कि आचरण के संत थे। उनके जीवन की हर श्वास में कठोर साधना और आचार-अनुशासन की झलक मिलती थी। आचार्य जी ने इन सिद्धांतों को केवल उपदेश के रूप में नहीं, बल्कि भक्ति, अनुशासन और कर्तव्य के रूप में अपने जीवन में आत्मसात किया।
महिलाओं की शिक्षा के प्रति उनका दृष्टिकोण अत्यंत प्रगतिशील था। उन्होंने न केवल महिला शिक्षा की वकालत की, बल्कि विद्यालयों और शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना के लिए समाज को प्रेरित किया। आचार्य श्री का यह दृढ़ विश्वास था कि “शिक्षित महिला पूरे परिवार और समाज को उन्नत करती है।” उन्होंने नारी को समाज की शक्ति और संस्कृति की वाहक के रूप में देखा, और उसके सशक्तिकरण को राष्ट्र निर्माण का आधार माना।
आचार्य श्री ने अंधविश्वास, कुरीतियों और हानिकारक प्रथाओं का खुलकर विरोध किया। उन्होंने जीवन में सरलता, नैतिकता और अनुशासन को बढ़ावा दिया। उनका कहना था कि धर्म का सार बाहरी आडंबर में नहीं, बल्कि अंतःकरण की पवित्रता और व्यवहार की शुद्धता में निहित है। उन्होंने समाज को यह सिखाया कि सच्चा धर्म वही है जो दूसरों के प्रति करुणा, सत्यनिष्ठा और सेवा की भावना को जागृत करे। आचार्य जी ने स्पष्ट कहा था कि ‘‘राष्ट्रधर्म ही सच्चा धर्म है।’’
उनकी करुणा केवल प्रवचनों तक सीमित नहीं थी। उन्होंने अस्पतालों, धर्मार्थ संस्थानों और सेवा कार्यों के माध्यम से गरीबों, रोगियों और जरूरतमंदों को सहारा प्रदान किया। उनका विश्वास था कि सेवा ही सर्वोच्च साधना है, और जब मनुष्य दूसरों के दुख को अपना समझकर उसकी सहायता करता है, तभी उसका जीवन सार्थक होता है।
आचार्य श्री जवाहरलाल जी महाराज का जीवन निःस्वार्थ सेवा, त्याग और समाज सुधार का प्रतीक था। उनका विश्वास था कि नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति ही एक प्रगतिशील और एकजुट भारत की नींव है।
उन्होंने अनेक सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी की और कई बार अपने सिद्धांतों के लिए कारावास भी स्वीकार किया। लेकिन किसी भी परिस्थिति में उन्होंने अपने आदर्शों से समझौता नहीं किया। उनका जीवन आज भी हमें यह सिखाता है कि सच्ची महानता भोग में नहीं, बल्कि त्याग, संयम और सेवा में निहित है।
देवियो और सज्जनो,
हम सब जानते हैं कि जैन दर्शन भारत की एक अनमोल देन है। जैन दर्शन भारत की उस गहन आध्यात्मिक परंपरा का प्रतीक है, जिसने संसार को अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, करुणा और आत्मसंयम जैसे सार्वभौमिक मूल्यों का संदेश दिया। यह दर्शन हमें सिखाता है कि जीवन का उद्देश्य केवल भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति नहीं, बल्कि आत्मा की शुद्धि और मुक्ति है।
जैन दर्शन के अहिंसा, करुणा और सहिष्णुता के सिद्धांत भारत की आध्यात्मिक विरासत की अनमोल देन हैं। महात्मा गांधी ने स्वयं स्वीकार किया था कि जैन दर्शन ने उनके अहिंसा और सत्याग्रह के विचारों को प्रभावित किया। आचार्य जवाहर लाल जी महाराज ने इन सिद्धांतों को अपने जीवन में भक्ति, अनुशासन और कर्तव्य के रूप में आत्मसात किया।
जैन दर्शन का मूल केंद्रबिंदु है, “अहिंसा परमो धर्मः”, अर्थात् अहिंसा ही सर्वोच्च धर्म है। यह सिद्धांत आज भी मानवता के लिए मार्गदर्शक है, क्योंकि यह हमें सिखाता है कि प्रत्येक प्राणी में वही चेतना विद्यमान है जो हममें है। दूसरों को कष्ट पहुँचाना, वास्तव में स्वयं को कष्ट पहुँचाना है।
भगवान महावीर ने कहा था, “जियो और जीने दो”। यह केवल एक नारा नहीं, बल्कि एक संपूर्ण मानव धर्म है। इस विचार में वह उदात्त भावना है जो सभी प्राणियों में एक समान आत्मा को देखती है। यही दृष्टि हमें अहंकार से मुक्त करती है और दूसरों के प्रति संवेदना जगाती है।
जैन दर्शन के तीन रत्न, सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र जीवन के हर क्षेत्र में संतुलन और नैतिकता का मार्ग दिखाते हैं। यह हमें सिखाते हैं कि केवल जानना पर्याप्त नहीं, बल्कि सही दृष्टिकोण और आचरण भी उतने ही आवश्यक हैं।
इसके साथ ही, अनेकांतवाद और अपरिग्रह जैसे सिद्धांत जैन दर्शन को और भी विशिष्ट बनाते हैं। अनेकांतवाद हमें सहिष्णुता सिखाता है। यह बताता है कि सत्य को देखने के अनेक दृष्टिकोण हो सकते हैं, और हमें हर मत का सम्मान करना चाहिए। वहीं अपरिग्रह हमें सिखाता है कि जितना आवश्यक है उतना ही ग्रहण करें, क्योंकि अत्यधिक भोग ही दुख और असंतुलन का कारण बनता है।
जैन आचार्यों और संतों ने अपने तप, त्याग और संयम से यह सिद्ध किया है कि सच्चा सुख आत्म-विजय में है, न कि संसार-विजय में। उनका जीवन इस बात का उदाहरण है कि सीमित संसाधनों में भी संतोषपूर्वक, बिना किसी प्राणी को कष्ट पहुँचाए, शुद्ध और उद्देश्यपूर्ण जीवन जिया जा सकता है। उनका जीवन संदेश देता है कि जब मनुष्य अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण पा लेता है, तभी वह वास्तविक स्वतंत्रता का अनुभव करता है।
आज के युग में, जब संसार भौतिकता और प्रतिस्पर्धा के जाल में उलझा हुआ है, जैन दर्शन की यह अमूल्य देन हमें याद दिलाती है कि स्थायी शांति बाहर नहीं, भीतर से प्राप्त होती है।
इस प्रकार, जैन दर्शन केवल भारत की नहीं, बल्कि सम्पूर्ण विश्व की नैतिक और आध्यात्मिक दिशा को आलोकित करने वाली अमर ज्योति है। वास्तव में, भारत की यह एक अनमोल देन है, जिसने मानवता को मानव बने रहने की राह दिखाई है।
देवियो और सज्जनो,
यह स्मारक डाक टिकट और स्मारक सिक्का केवल एक औपचारिक प्रतीक नहीं, बल्कि आचार्य श्री जवाहरलाल जी महाराज के अद्वितीय त्याग, निःस्वार्थ सेवा और गहन आध्यात्मिक नेतृत्व को युगों-युगों तक अमर करने वाले श्रद्धा-स्मारक हैं। ये स्मृति-चिह्न हमें निरंतर यह स्मरण कराते रहेंगे कि भारत की वास्तविक शक्ति भौतिक सामर्थ्य में नहीं, बल्कि उसकी आत्मा की शुद्धता, करुणा, सत्य और एकता में निहित है।
आइए, हम सभी आचार्य श्री के जीवन और आदर्शों से प्रेरणा लेकर अपने भीतर सेवा, सत्य और समभाव की ज्योति प्रज्वलित करें, ताकि हमारा राष्ट्र केवल विकसित ही नहीं, बल्कि मूल्यवान, सशक्त और शांतिमय भारत बने।
इन्हीं मंगलकामनाओं के साथ, मैं आप सभी को धन्यवाद देता हूँ।
जय भारत,
जय हिन्द!