SPEECH OF PUNJAB GOVERNOR AND ADMINISTRATOR, UT CHANDIGARH, SHRI GULAB CHAND KATARIA ON THE OCCASION OF 180 UPVAS PARNOTSAV OF SHRIMAD VIJAY HANSRATTAN SURISHVAR JI MAHARAJ AT NEW DELHI ON NOVEMBER 8, 2025.
- by Admin
- 2025-11-09 19:50
परमपूज्य श्रीमद् विजय हंसरत्न सुरीश्वरजी महाराज के 180 उपवास पारणोत्सव के अवसर पर राज्यपाल श्री गुलाब चंद कटारिया जी का संबोधनदिनांकः 09.11.2025, रविवार समयः सुबह 10:30 बजे स्थानः दिल्ली
सप्रेम जय जिनेन्द्र!
मुझे अत्यंत हर्ष और गौरव का अनुभव हो रहा है कि मैं परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय हंसरत्न सूरीश्वरजी महाराज के 180 उपवास पारणोत्सव, वह भी आठवीं बार, के इस ऐतिहासिक और अद्भुत अवसर का साक्षी बन रहा हूँ। हम सभी आज उस दिव्य क्षण के साक्षी हैं जहाँ तप, त्याग, करुणा और आत्मबल का चरम एक जीवन में, एक तपस्वी में साकार हुआ है।
परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय हंसरत्न सूरीश्वरजी महाराज का 180 उपवास पारणोत्सव न केवल जैन समाज, बल्कि समग्र मानवता के लिए एक अद्वितीय प्रेरणा का स्रोत है। यह आयोजन तप, संयम, करुणा और आत्मशुद्धि की परंपरा का जीवंत उदाहरण है, जिसने न केवल धार्मिक अनुयायियों को, बल्कि समाज के हर वर्ग को गहराई से प्रभावित किया है।
आचार्य श्री का जीवन अहिंसा, संयम, त्याग और करुणा जैसे जैन धर्म के मूल सिद्धांतों का मूर्तिमान स्वरूप है। उनका जन्म एक धार्मिक परिवार में हुआ, जहाँ प्रारंभ से ही आध्यात्मिकता और साधना का वातावरण था। बचपन से ही उनमें वैराग्य, तप और सेवा की भावना प्रबल थी। उन्होंने मात्र 13 वर्ष की युवावस्था में ही सांसारिक मोह-माया का त्याग कर जैन मुनि के रूप में दीक्षा ग्रहण की और कठोर साधना के पथ पर अग्रसर हुए और आज चरित्र जीवन के 47 वर्ष पूर्ण कर चुके हैं।
इस अवधि में उन्होंने ज्ञान, शांति और संदेश को जन-जन तक पहुँचाने के लिए 50 हजार किलोमीटर से अधिक पदयात्राएँ कीं। पूज्यश्री ने लाखों जीवन में समझ, करुणा, संतुलन और शांति का प्रकाश फैलाया है। अनेकों ने उनके जीवन में ऐसे अनुभव देखे हैं जो चमत्कार जैसे प्रतीत होते हैं, परंतु वे आत्मबल, तप और करुणा की सच्ची साधना के परिणाम हैं।
अत्यंत अलौकिक आत्मबल और अद्भुत साधना के प्रतीक आचार्यश्री ने पिछले 8 हजार 450 दिनों में 5 हजार 500 से अधिक दिन उपवास में और 7 हजार 700 से अधिक दिन तपस्या में व्यतीत किए हैं। उन्होंने 108 बार महामृत्युंजय तप सहित मासक्षमण किया है और अब तक आठ बार 180 दिनों के दिव्य उपवास संपन्न किए हैं।
ये साधनाएँ केवल आँकड़ों का संकलन नहीं, बल्कि आत्मबल, स्वानुशासन और चेतना के उज्ज्वल प्रतीक हैं। ये इस बात का सशक्त संदेश हैं कि आत्मा की शक्ति अनंत है। और जब तप और भावना एक हो जाते हैं, तो मनुष्य स्वयं तपस्वी बन जाता है।
आचार्य श्री के अनुशासन, तप और साधना ने उन्हें जैन समाज में ही नहीं, बल्कि समग्र भारतीय समाज में एक आदर्श के रूप में स्थापित किया। उन्हें ‘तपो रत्न महोदधि’ की उपाधि से भी सम्मानित किया गया, जो उनकी तपस्या की गहराई और समाज पर प्रभाव का प्रमाण है।
आचार्य श्री का जीवन केवल व्यक्तिगत साधना तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उन्होंने समाज सेवा, परोपकार, अहिंसा और विश्वशांति के संदेश को भी अपने जीवन का ध्येय बनाया। उनके प्रवचनों में करुणा, सेवा और मोक्षमार्ग की प्रेरणा स्पष्ट झलकती है। वे समाज के हर वर्ग को धर्म, संयम और नैतिकता के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते रहे हैं।
आचार्यश्री का अपने परम श्रद्धेय गुरु भूवनभानु सूरीश्वरजी महाराज के प्रति गहरा प्रेम और अखंड भक्ति भाव इतना अनुपम था कि जब उन्हें अपने पूज्य गुरु के अस्वस्थ होने का समाचार मिला, तो उन्होंने केवल एक ही दिन में 90 किलोमीटर पैदल चलकर उनसे भेंट की। यह अद्भुत घटना उनके गुरुभक्ति, समर्पण और आत्मानुशासन की ऐसी मिसाल है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बन गई है।
प्रिय श्रोताजनो,
जैन धर्म ने सदियों से इस राष्ट्र को केवल धार्मिक विचार नहीं दिए, उसने जीवन जीने की कला दी है। जहाँ खुशियाँ शोर में नहीं, मौन में खोजी जाती हैं। जहाँ विजय किसी शत्रु से नहीं, स्वयं से प्राप्त की जाती है।
यह भारत की वही आध्यात्मिक परंपरा है, जो भगवान ऋषभदेव, भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर से लेकर आज तक तपस्वी परंपरा के माध्यम से जीवित रही है।
“नवकार महामंत्र” केवल एक मंत्र नहीं, बल्कि मन को स्थिर करने की एक अलौकिक साधना है। यह श्वासों को पवित्र करता है, भावों को निर्मल बनाता है, और मनुष्य को अपने मूल स्वरूप, वीतराग अवस्था, के समीप ले जाता है।
नवकार महामंत्र की प्रत्येक पंक्ति आचार्यश्री के जीवन में चरित्र बनकर प्रकट हुई है, व्यवहार बनकर स्थापित हुई है, और आदर्श बनकर समाज का मार्गदर्शन कर रही है।
आज जब विश्व संकटों, संघर्षों और असहिष्णुता से व्याकुल है, जैन धर्म का यह संदेश पहले से अधिक प्रासंगिक है कि “अहिंसा कमजोरी नहीं, बल्कि साहस का सर्वोच्च रूप है।” और “जीव दया” केवल परोपकार नहीं, बल्कि यह जागरूकता है कि हर जीव में एक समान आत्मज्योति है।
पूज्य दिव्य तपस्वी महाराज का यह तप समस्त विश्व के लिए एक प्रेरणा है कि मानवता का भविष्य तप, शांति, त्याग और जीव दया से ही उज्ज्वल बनेगा, न कि हिंसा और भोगवाद से।
भगवान महावीर का यह सिद्धांत, “तप मनुष्य को शुद्ध करता है, और शुद्ध आत्मा ही परम सुख देती है”, पूज्य महाराजश्री के जीवन में साकार रूप में झलकता है।
जहाँ आज का मानव भौतिक सुख-सुविधाओं की ओर आकृष्ट है, वहीं पूज्य आचार्यश्री जैसे महामानव हमें यह स्मरण कराते हैं कि सच्चा सुख आत्मसंयम, आत्मजागरण और आत्मशुद्धि में निहित है।
परम पूज्य आचार्यश्री न केवल जैन धर्म के आलोक स्तंभ हैं, बल्कि समूचे मानव समाज के लिए एक प्रेरणास्रोत हैं। उनके तप की गहराई, उनकी करुणा की व्यापकता और उनके चिंतन की ऊँचाई, तीनों मिलकर एक दिव्य आभा का निर्माण करते हैं, जो न केवल जैन समाज, बल्कि समस्त मानवता के मार्ग को आलोकित करती है।
प्रिय श्रोताजनो,
भारत की आध्यात्मिक भूमि सदियों से त्याग और तप की जननी रही है। जैन धर्म ने “अहिंसा, अपरिग्रह और आत्मसंयम” के माध्यम से इस परंपरा को नई ऊँचाइयाँ दीं। आचार्यश्री का जीवन उसी तपोमार्ग का जीवंत प्रतीक है।
उनके द्वारा प्रसारित संदेश, “संयम ही जीवन का अलंकार है, और सेवा ही साधना का स्वरूप।” हम सभी के लिए मार्गदर्शक हैं।
आचार्यश्री का उपवास न केवल आत्मिक शुद्धि का प्रतीक है, बल्कि पर्यावरण, पशु-पक्षियों और प्रकृति के प्रति करुणा का भी संदेश देता है। उनकी तपशक्ति हमें यह सिखाती है कि जब मनुष्य अपने भोग पर नियंत्रण रखता है, तब वह प्रकृति के साथ भी सामंजस्य स्थापित करता है।
पूज्य आचार्यश्री ने केवल तप नहीं किया, उन्होंने समाज को संस्कार, सेवा और सह-अस्तित्व का संदेश दिया। उनके प्रवचनों में धर्म और विज्ञान, परंपरा और आधुनिकता, आस्था और तर्क, इन सभी का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है।
उन्होंने नशा-मुक्ति, पर्यावरण संरक्षण, गौसंवर्धन, शिक्षा और नैतिकता के प्रसार में जो योगदान दिया है, वह अमूल्य है। उनकी प्रेरणा से अनेक युवाओं ने संयम, सेवा और सत्य के मार्ग को अपनाया है।
आचार्यश्री का जीवन इस बात का प्रमाण है कि धर्म केवल पूजा नहीं, बल्कि आचरण है और आचरण में जब शुद्धता आती है, तब समाज में शांति और समरसता का वातावरण बनता है।
प्रिय श्रोताजनो,
180 उपवास केवल संख्या नहीं, यह अद्भुत आत्मबल, असीम धैर्य और अद्वितीय विश्वास का परिचायक है। आठ बार इस तप को सफलतापूर्वक पूर्ण करना, यह असंभव को संभव बनाने का जीवंत उदाहरण है। यह दर्शाता है कि जब मनुष्य के भीतर विश्वास और श्रद्धा जागती है, तो शरीर, समय और परिस्थितियाँ भी उसके संकल्प के आगे नतमस्तक हो जाती हैं।
भारत भूमि का गौरव ही यह है कि यहाँ राजा जनक से लेकर महात्मा गांधी तक, हर युग में किसी न किसी रूप में त्याग, अहिंसा और संयम का संदेश मिलता रहा है।
आचार्यश्री ने इस परंपरा को न केवल आगे बढ़ाया है, बल्कि आधुनिक युग में इसे प्रासंगिक भी बनाया है। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि आज भी धर्म आधुनिकता का विरोधी नहीं, बल्कि उसका नैतिक पथप्रदर्शक है।
आज का यह पारणोत्सव केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि भारत की आध्यात्मिक परंपरा का गौरवपूर्ण उत्सव है। यह हमें याद दिलाता है कि भारत की असली संपत्ति उसके तपस्वियों में है, उसकी संस्कृति और उसके मूल्यों में है।
जब तप और संस्कृति एक साथ चलें, तो राष्ट्र केवल सुरक्षित ही नहीं, बल्कि समृद्ध भी बनता है।
पूज्य तपस्वी महाराज का यह तप आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बनेगा कि सफलता बाहरी उपलब्धियों में नहीं, बल्कि आंतरिक साधना और आत्म-विजय में निहित है।
यह तप हमें यह भी सिखाता है कि राष्ट्र तभी सशक्त बनता है जब परिवार संस्कारित हों, विचार शुद्ध हों, मन शांत हो, और आत्मा ऊँचाई प्राप्त करे।
तप का अर्थ केवल शरीर को कष्ट देना नहीं, बल्कि मन, वाणी और कर्म को शुद्ध करना है। यही तप, व्यक्ति को ‘जीव’ से ‘महाज्ञानी’ और ‘साधक’ से ‘सिद्ध’ की ओर ले जाता है।
मैं संपूर्ण जैन समाज को हृदय से बधाई देता हूँ कि आज भारत की राजधानी दिल्ली में इस ऐतिहासिक और पवित्र तप के पारण का साक्षात्कार विश्व को मिल रहा है।
समस्त समाज की ओर से, भारत की संस्कृति की ओर से, मैं पूज्य दिव्य तपस्वी महाराज के चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम करता हूँ।
ईश्वर करें यह तपज्योति हम सभी को प्रेरणा दे, हमारे राष्ट्र को शक्ति दे, और समूचे विश्व को शांति प्रदान करे।
धन्यवाद,
जय हिन्द!