SPEECH OF PUNJAB GOVERNOR AND ADMINISTRATOR, UT CHANDIGARH, SHRI GULAB CHAND KATARIA ON THE OCCASIO NOF INAUGURATION SESSION OF THE ALL INDIA UNIVERSITIES NORTH ZONE VICE CHANCELLORS MEET: 2025-2026 AT JALANDHAR ON DECEMBER 9, 2025.

‘नोर्थ ज़ोन वाईस चांसलर्स मीट  2025-26’ के अवसर पर

माननीय राज्यपाल श्री गुलाब चन्द कटारिया जी का संबोधन

दिनांकः 09.12.2025, मंगलवारसमयः सुबह 10:00 बजेस्थानः एल.पी.यू. फगवाड़ा

    

नमस्कार!

आज मैं भारतीय विश्वविद्यालय संघ (Association of Indian Universities)  द्वारा आयोजित इस दो दिवसीय ‘उत्तर क्षेत्र कुलपति सम्मेलन 2025-26’ (North Zone Vice Chancellors' Meet) में आप सभी के बीच उपस्थित होकर अत्यंत हर्षित और गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ। 

इस सम्मेलन का विषय “पाठ्यक्रम और अनुसंधान में पारंपरिक ज्ञान का एकीकरण” (Integrating Traditional Wisdom in Curriculum and Research) केवल बौद्धिक चर्चा का विषय नहीं, बल्कि हमारे शैक्षिक भविष्य की दिशा तय करने वाला एक निर्णायक मुद्दा है। मैं भारतीय विश्वविद्यालय संघ तथा मेज़बान ‘लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी’ को इस आयोजन के लिए बधाई देता हूँ।

भारतीय विश्वविद्यालय संघ, जो 1925 में स्थापित देश की प्रमुख शीर्ष उच्च शिक्षा संस्थाओं में से एक है, भारत सरकार को उच्च शिक्षा, खेल, संस्कृति तथा अंतरराष्ट्रीयकरण के क्षेत्र में शोध-आधारित नीतिगत सलाह प्रदान करता रहा है। यह दशकों से भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली का आधार स्तंभ रहा है। इसने विश्वविद्यालयों को एकजुट किया, सहयोग को बढ़ावा दिया, शैक्षणिक मानकों में सामंजस्य स्थापित किया, तथा नवाचार एवं विचार-विनिमय के लिए मंच प्रदान किया है। 

हमें गर्व है कि डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, डॉ. ज़ाकिर हुसैन और डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे दिग्गज भारतीय विश्वविद्यालय संघ के अध्यक्ष रहे हैं। इस संघ ने अपने सौ वर्षों की यात्रा में निरंतर विकास करते हुए भारतीय उच्च शिक्षा की गौरवशाली परंपरा को आगे बढ़ाया है।

मैं वर्ष 2005 में स्थापित लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, फगवाड़ा को भी इस प्रतिष्ठित सम्मेलन की मेजबानी के लिए बधाई देता हूँ। यह संस्थान अपनी दूरदर्शी शैक्षणिक दृष्टि, नवोन्मेषी शिक्षण पद्धतियों और सर्वांगीण शिक्षार्थियों को गढ़ने की प्रतिबद्धता के लिए जाना जाता है। 

यह देखकर प्रसन्नता होती है कि उत्तर भारत के उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली तथा जम्मू-कश्मीर राज्यों के लगभग 100 कुलपति व्यक्तिगत रूप से तथा लगभग 100 वर्चुअल माध्यम से इस सम्मेलन में भाग ले रहे हैं।

देवियो और सज्जनो,

वर्तमान परिवर्तनों और उभरते रुझानों को देखते हुए यह उचित समय है कि भारत उच्च शिक्षा के भविष्य को दिशा देने में अपनी भूमिका पर गंभीर चर्चा करे। इसी दृष्टि से इस सम्मेलन का विषय ‘‘पाठ्यक्रम और अनुसंधान में पारंपरिक ज्ञान का एकीकरण’’ चुना गया है।

यह विषय हमें भीतर झांकने और उन प्राचीन ज्ञान-स्रोतों को पुनः समझने के लिए प्रेरित करता है, जिन्होंने सदियों से भारतीय समाज का मार्गदर्शन किया है। आयुर्वेद, योग, शास्त्रीय कलाएँ, वास्तुकला, प्राचीन गणित, पर्यावरणीय ज्ञान, कृषि, भाषा विज्ञान आदि भारत की पारंपरिक ज्ञान प्रणालियाँ सिर्फ ऐतिहासिक धरोहरें नहीं हैं, बल्कि आज भी अत्यंत प्रासंगिक जीवंत ज्ञान प्रणालियाँ हैं। 

इन्हें कक्षा और अनुसंधान में सम्मिलित करने से विद्यार्थी अपनी जड़ों से जुड़ते हैं और व्यापक एवं समग्र दृष्टिकोण विकसित करते हैं। शोध के क्षेत्र में पारंपरिक ज्ञान नवाचार को प्रेरित करता है, नए विचारों को जन्म देता है और ऐसे सतत मॉडल प्रस्तुत करता है जो आधुनिक विज्ञान और तकनीक के पूरक हैं।

इस सम्मेलन के उप-विषयों की बात करें तो इनमें ‘भारतीय ज्ञान प्रणाली को पाठ्यक्रम एवं संकाय विकास में समाहित करना’, ‘प्राचीन ज्ञान को आधुनिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से जोड़ते हुए अंतःविषयक शोध’, और ‘भारतीय ज्ञान प्रणाली के भविष्य उन्मुख आयाम’ शामिल हैं।

देवियो और सज्जनो,

हमारी शिक्षा प्रणाली की जड़ें अत्यंत प्राचीन हैं। गुरुकुल परंपरा में शिक्षा केवल पुस्तकों तक सीमित नहीं थी, बल्कि नैतिकता, अनुशासन, आत्मनिर्भरता और जीवन कौशल पर आधारित एक पूर्ण जीवनशैली थी। तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालय विश्वभर में ज्ञान के केंद्र थे, और इसी कारण भारत को विश्वगुरु कहा जाता था।

आज आवश्यकता है कि हम अपने प्राचीन ज्ञान को आधुनिक विज्ञान और तकनीक से जोड़ें। ऐसा करने से उच्च शिक्षा केवल डिग्री तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि जीवन निर्माण, मूल्य निर्माण और नवाचार का सशक्त माध्यम बन जाएगी, जो हमें वैश्विक प्रतिस्पर्धा में सक्षम बनाते हुए हमारी सांस्कृतिक जड़ों को भी मजबूत करेगी।

आधुनिक शिक्षा के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती है, एक ऐसी पीढ़ी तैयार करना जो तकनीकी रूप से दक्ष तो हो ही, साथ ही मानवता, नैतिकता और सह-अस्तित्व के मूल्यों को भी समझती हो। भारतीय ज्ञान परंपरा इन सभी मूल्यों को हज़ारों वर्षों से संजोती आई है। 

हमें ऐसे विश्वविद्यालयों का निर्माण करना होगा जो ज्ञान के साथ मूल्यों को भी महत्व दें; ऐसे अनुसंधान को प्रोत्साहित करना होगा जो हमारी सभ्यतागत विरासत को सम्मान देते हुए वैज्ञानिक दृष्टि भी अपनाते हों; और ऐसे छात्रों को विकसित करना होगा जो केवल पेशेवर ही नहीं, बल्कि विचारशील, जिम्मेदार एवं परंपरा-सचेत नागरिक भी हों।

देवियो और सज्जनो,

मैं राष्ट्रीय स्तर पर उन प्रमुख पहलों का उल्लेख करना चाहूँगा, जिनसे भारतीय ज्ञान प्रणाली को उच्च शिक्षा में प्रभावी रूप से समाहित किया जा रहा है।

1. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 - एनईपी-2020 ने भारतीय ज्ञान प्रणालियों को शिक्षा की मूल संरचना में शामिल करने पर विशेष जोर दिया है। इसका उद्देश्य विद्यार्थियों को वैश्विक कौशल के साथ-साथ अपनी सांस्कृतिक और सभ्यतागत जड़ों से भी जोड़ना है, जिससे शिक्षा केवल जानकारी तक सीमित न रहे बल्कि चरित्र, मूल्य और समस्या-समाधान क्षमता का विकास भी हो।

2. शिक्षा मंत्रालय का भारतीय ज्ञान परंपरा विभाग - केंद्र सरकार ने इस विभाग को शोध, पाठ्यक्रम विकास, फैकल्टी प्रशिक्षण और अनुदान जैसी पहलों के माध्यम से पारंपरिक ज्ञान को संस्थागत रूप से सशक्त बनाने का दायित्व दिया है। विश्वविद्यालयों को सक्रिय रूप से जोड़ने के लिए इंटर्नशिप, परियोजनाएँ, वेबिनार और वर्कशॉप लगातार आयोजित किए जा रहे हैं।

3. आयुष मंत्रालय की पहल - आयुष मंत्रालय पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों, जैसे आयुर्वेद, यूनानी और सिद्ध के वैज्ञानिक शोध और आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान से उनके समन्वय को बढ़ावा दे रहा है। इससे पारंपरिक ज्ञान का वैज्ञानिक सत्यापन और बायोमेडिकल अनुसंधान के साथ उसका सार्थक जुड़ाव संभव हो रहा है। 

इन पहलों का व्यापक उद्देश्य यही है कि भारत की प्राचीन ज्ञान-परंपरा केवल विश्वविद्यालयों की वैकल्पिक गतिविधि न बने, बल्कि मुख्यधारा के शिक्षण, अनुसंधान और नवाचार का अभिन्न अंग बने। 

इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि विश्वविद्यालय, नीति निर्माता, शिक्षाविद और शोधकर्ता मिलकर एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था को आकार दें, जो परंपरा की गहराई और आधुनिकता की प्रासंगिकता, दोनों को समान रूप से साथ लेकर चले। यही समन्वय 21वीं सदी के भारत को ज्ञान-प्रधान, मूल्य-प्रधान और नवाचार-प्रधान राष्ट्र के रूप में स्थापित करेगा। 

देवियो और सज्जनो,

पिछले एक दशक में भारत ने वैश्विक स्तर पर उल्लेखनीय उन्नति की है। आज भारत का उच्च शिक्षा क्षेत्र विश्व का तीसरा सबसे बड़ा शिक्षा तंत्र है। पिछले एक दशक में भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था ने अभूतपूर्व विस्तार और मजबूती हासिल की है। वर्ष 2014 में जहाँ हमारे देश में 16 भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IITs) थे, वहीं अब इनकी संख्या बढ़कर 23 हो गई है। इसी प्रकार, भारतीय प्रबंधन संस्थानों (IIMs) की संख्या 2014 के 13 से बढ़कर आज 21 हो चुकी है। 

विश्वविद्यालयों के स्तर पर भी उल्लेखनीय प्रगति हुई है। 2014 में 760 विश्वविद्यालय थे, जो अब बढ़कर 1 हजार 338 हो गए हैं। वहीं 2014 में 38 हजार 498 कॉलेजों थे जो अब बढ़कर 52 हजार 81 हो गई है। चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में भी असाधारण वृद्धि दर्ज की गई है। 2014 में 387 मेडिकल कॉलेज थे, जबकि आज यह संख्या बढ़कर 816 तक पहुँच गई है। और एम्स की संख्या भी 2014 में 7 से बढ़कर अब 20 हो गई है।

यह विस्तार भारत की शैक्षिक क्षमता को दर्शाता है, जो सरकार की दूरदर्शी नीतियों, बढ़ती मांग और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के प्रति प्रतिबद्धता का भी सशक्त प्रमाण है। यह परिवर्तन बताता है कि भारत आज ज्ञान, कौशल और नवाचार के क्षेत्र में तेज़ी से वैश्विक नेतृत्व की ओर बढ़ रहा है।

यदि हमारे सभी उच्च शिक्षा संस्थान राष्ट्रीय शैक्षिक लक्ष्यों की प्राप्ति, नवाचार के विस्तार, और कौशल-विकास के उन्नयन में समर्पित भाव से आगे आएँ, तो भारत निश्चित ही वैश्विक ज्ञान के सुपरपावर के रूप में उभर सकता है। 

देवियो और सज्जनो,

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन कहा करते थे, “शिक्षा का अंतिम उद्देश्य ऐसा स्वच्छंद और सृजनशील मनुष्य तैयार करना है, जो परिस्थितियों की कठोरता और प्रकृति की प्रतिकूलताओं से जूझकर भी आगे बढ़ सके।”

उनका आशय स्पष्ट था कि शिक्षा वही है जो व्यक्ति को भीतर से मुक्त करे, उसे सोचने की स्वतंत्रता दे, रचनात्मकता दे, और नए विचारों से नया निर्माण करने की क्षमता दे। वे मानते थे कि शिक्षा-व्यवस्था का निर्माण हमें पूरे विश्व को एक इकाई मानकर करना चाहिए, ताकि हमारी सोच सीमाओं तक सीमित न रहे।

भारत ने हजारों वर्षों की अपनी यात्रा में यह सिद्ध किया है कि जब हम अपने मूल्यों, जड़ों और सांस्कृतिक चेतना को संजोकर रखते हैं, तभी हम भविष्य के लिए मजबूत नींव तैयार कर पाते हैं। परंपरा हमें दिशा देती है, जबकि प्रगति हमें गति देती है, और जब दिशा और गति का यह संगम होता है, तो समाज न केवल विकास करता है, बल्कि स्थायी, संवेदनशील और संतुलित विकास करता है।

हमारे ऋषि-मुनियों की ज्ञान परंपरा, गुरु-शिष्य परंपरा, योग, आयुर्वेद, कला, साहित्य, वास्तु, विज्ञान, इन सबने हमें सिखाया है कि ज्ञान केवल समय के साथ बदलने वाली वस्तु नहीं, बल्कि समय को दिशा देने वाली शक्ति है। 

जिस प्रकार लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल जी ने पूरे देश को एक सूत्र में बाँधने का ऐतिहासिक कार्य किया था, उसी प्रकार आज हमारे माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी देश को विकसित भारत 2047 के साझा लक्ष्य की ओर आगे बढ़ाने का नेतृत्व कर रहे हैं। इसी राष्ट्रीय संकल्प को साकार करने के लिए नई शिक्षा नीति 2020 को एक परिवर्तनकारी कदम के रूप में लागू किया गया है।

यह नीति न केवल ज्ञान और कौशल को आधुनिक विश्व की आवश्यकताओं के अनुरूप ढालने का प्रयास करती है, बल्कि विद्यार्थियों में शोध, नवाचार, रचनात्मकता और मूल्य-आधारित शिक्षा का भी समन्वय करती है। इसका उद्देश्य ऐसे युवाओं का निर्माण करना है जो वैश्विक प्रतिस्पर्धा में आगे हों और साथ ही राष्ट्र की सांस्कृतिक समृद्धि तथा एकता के भाव को भी मजबूती प्रदान करें।

मैं इस बात पर विशेष जोर देना चाहूँगा कि परंपरा और आधुनिकता विरोधी ध्रुव नहीं हैं, वे एक-दूसरे के पूरक हैं। भारत की ज्ञान परंपरा हमें यह सिखाती है कि विज्ञान कभी केवल प्रयोगशाला तक सीमित नहीं रहा; वह जीवन, प्रकृति, समाज और आध्यात्मिकता के गहरे अनुभवों से निकला है। 

आप सभी ने अपना संपूर्ण जीवन शिक्षा, अनुसंधान और युवा पीढ़ी के निर्माण में लगाया है। अनुभव से आप भली-भाँति जानते हैं कि प्रत्येक विद्यार्थी अपनी एक अनोखी क्षमता, एक विशिष्ट प्रतिभा लेकर जन्म लेता है। 

इसलिए मेरा दृढ़ मानना है कि हमें शिक्षा की प्रक्रिया को केवल एकरूप प्रणाली के रूप में नहीं देखना चाहिए, बल्कि प्रत्येक विद्यार्थी की रुचि, योग्यता और उसकी अंतर्निहित क्षमता के अनुरूप सीखने के अवसर उपलब्ध कराने चाहिए। जब हम बच्चे की स्वाभाविक प्रतिभा को पहचानकर उसे सही दिशा में विकसित करते हैं, तभी शिक्षा अपने वास्तविक उद्देश्य, यानी समग्र व्यक्तित्व निर्माण को पूरा कर पाती है।

हमें डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम जी के जीवन से यह सीख लेनी चाहिए कि महानता ज्ञान या उपलब्धियों से नहीं, बल्कि ईमानदारी, अनुशासन, विनम्रता और राष्ट्रहित के प्रति समर्पण से आती है। उनका जीवन दर्शाता है कि मजबूत नैतिक मूल्यों वाला व्यक्ति स्वयं भी प्रगति करता है और समाज के लिए प्रेरणा बनता है। इसलिए युवाओं में ऐसे ही चरित्र और आदर्शों का विकास आवश्यक है। 

साथियो,

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बहुत पहले ही शिक्षा और उद्योग के सहयोग को राष्ट्र की प्रगति का आधार माना था। आज भारत इस सोच को एक नए आयाम पर ले जा रहा है। हमारे सामने आधुनिक तकनीक के अनगिनत अवसर हैं। Artificial Intelligence, Internet of Things, Big Data, 3D Printing, Robotics, Geo-informatics, Smart Healthcare vkSj Defence Tech] इन क्षेत्रों में भारत तेजी से वैश्विक भविष्य-केंद्र के रूप में उभर रहा है।

युवा पीढ़ी को इन बदलावों के अनुरूप तैयार करना अब हमारी शिक्षा-व्यवस्था की जिम्मेदारी है ताकि भारत इन तकनीकी क्रांतियों में केवल सहभागी ही नहीं, बल्कि विश्व को दिशा देने वाला अग्रणी देश बन सके।

और हाँ, हमें यह भी सुनिश्चित करना है कि आधुनिक तकनीक के इस तीव्र गति वाले दौर में हमारी युवा पीढ़ी अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कट न जाए। प्रगति और परंपरा दोनों का संतुलन बनाए रखना समय की माँग है। इसलिए आवश्यक है कि हम युवाओं को न केवल डिजिटल कौशल से सशक्त करें, बल्कि उन्हें अपने इतिहास, मूल्यों, भाषा, कला और सांस्कृतिक विरासत से भी गहराई से जोड़ें। 

मैं आशा करता हूँ कि इस सम्मेलन से निकलने वाले विचार, सुझाव और संकल्प न केवल उच्च शिक्षा नीति को एक नई दिशा देंगे, बल्कि भारत को ज्ञान-प्रधान राष्ट्र के रूप में स्थापित करने में निर्णायक भूमिका निभाएँगे। विश्वविद्यालय तभी उत्कृष्टता प्राप्त करते हैं जब वे केवल भवनों से नहीं, बल्कि विचारों, मूल्यों और नवाचारों से सशक्त होते हैं।

अंत में, मैं भारतीय विश्वविद्यालय संघ को इस अत्यंत महत्वपूर्ण आयोजन के लिए पुनः बधाई देता हूँ और इस सम्मेलन की सफलता की हार्दिक शुभकामनाएँ देता हूँ। आशा है कि आपके विचार भारतीय उच्च शिक्षा के उज्ज्वल भविष्य को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएँगे।

भारत का ज्ञान विश्व के कल्याण के लिए है, यही हमारी परंपरा का संदेश है, और यही हमारा भविष्य भी होना चाहिए।

आप सभी को उत्कृष्ट और सार्थक चर्चाओं की शुभकामनाएँ।

धन्यवाद,

जय हिंद!